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हिंदी मीडियम

'प्यार के साइड इफेक्ट' और 'शादी के साइड इफेक्ट' जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले साकेत चौधरी ने इस बार एक गंभीर मुद्दे पर 'हिंदी मीडियम' नाम की फिल्म बनाई है।

ज्योति जायसवाल 05 Sep 2017, 13:47:20 IST
मूवी रिव्यू:: हिंदी मीडियम
Critics Rating: 3 / 5
पर्दे पर: 19 मई 2017
कलाकार: इरफान खान
डायरेक्टर: साकेत चौधरी
शैली: कॉमेडी-ड्रामा
संगीत: अमर मोहिले

                     

'प्यार के साइड इफेक्ट' और 'शादी के साइड इफेक्ट' जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले साकेत चौधरी ने इस बार एक गंभीर मुद्दे पर 'हिंदी मीडियम' नाम की फिल्म बनाई है। जो लोग दिल्ली में रहते हैं और अपने बच्चों का एडमिशन अच्छे स्कूल में कराना चाहते हैं, वो इस फिल्म से अच्छी तरह से रिलेट कर पाएंगे। फिल्म की कहानी ऐसे ही एक दंपति की है जो दिल्ली के टॉप स्कूल में अपनी बेटी का एडमिशन कराना चाहते हैं।

कहानी- कहानी दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाले एक बिजनेसमैन राज बत्रा (इरफ़ान ख़ान) की है, जिसकी चांदनी चौक में साड़ियों और लहंगे की एक बड़ी शॉप है। राज के परिवार में उसकी पत्नी मीता (सबा कमर) और बेटी पिया  (दीक्षिता सहगल) है। भगवान की कृपा से इनके पास अच्छे-खासे पैसे हैं, लेकिन दोनों को इस बात का मलाल है कि वो इंगलिश मीडियम स्कूल में नहीं पढ़ पाए। राज की पत्नी मीता थोड़ी इंगिलश मीडियम है लेकिन राज बत्रा शुद्ध देसी है। जिसे बिल्कुल अंग्रेजी नहीं आती है। राज फिल्म में कहता भी नजर आता है, My life is Hindi but my wife is English। हिंदी भाषी होने की वजह से जो दिक्कतें इन लोगों ने झेली है वो नहीं चाहते कि उनकी बेटी पिया भी इससे गुजरे। बस इसी वजह से दोनों दिल्ली के टॉप 5 स्कूल में अपनी बेटी के एडमिशन की कवायद शुरू कर देते हैं। वसंत विहार के स्कूल में एडमिशन हो जाए इसलिए राज अपने परिवार के साथ चांदनी चौक से वसंत विहार रहने आ जाता है। राज और मीता खुद भी ट्रेनिंग लेते हैं ताकि बच्ची के साथ-साथ वो भी इंटव्यू में पास हो सके। लेकिन इरफ़ान के कम पढ़े-लिखे होने की वजह से पिया को टॉप 5 स्कूल में एडमिशन नहीं मिलता। कहीं से उन्हें पता चलता है कि गरीबी कोटे के तहत फॉर्म भरकर भी एडमिशन लिया जा सकता है, बस फिर क्या था वो वसंत विहार छोड़कर दिल्ली के गरीब इलाके भरतपुर में जाकर रहने लगते हैं, और गरीबी कोटे के तहत एडमिशन का फॉर्म भर देते हैं। भरतपुर में राज और मीता की मुलाकात बस्ती में रहने वाले श्याम प्रकाश (दीपक डोबरियाल) से होती है। आगे क्या होता है, बच्ची को एडमिशन मिलता है या नहीं? उनपर क्या-क्या मुसीबतें आती हैं? इसका पता आप फिल्म देखकर लगाइयेगा।

अभिनय- इरफ़ान ख़ान अपने उम्दा अभिनय के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इस फिल्म में उन्होंने अभिनय नहीं किया है बल्कि उस किरदार को जिया है। शुद्ध देसी दिल्लीवाले की भूमिका में इरफ़ान जंच रहे हैं। फिल्म में इरफ़ान के अपोजिट पाकिस्तानी एक्ट्रेस सबा कमर हैं, सबा फिल्म में बहुत खूबसूरत लगी हैं, उन्होंने भी अच्छा अभिनय किया है। फिल्म इरफ़ान ख़ान की है लेकिन दीपक डोबरियाल के आने से फिल्म में जान आ जाती है।कई जगह दीपक डोबरियाल इरफ़ान ख़ान पर भी भारी पड़े हैं।  इरफ़ान और दीपक की केमिस्ट्री आपको हंसाएगी।

डायलॉग- फिल्म की कहानी जीनत लखानी ने लिखी है और डायलॉग अमितोष नागपाल ने लिख हैं। फिल्म के डायलॉग काफी मजेदार हैं। आपको वनलाइनर सुनकर खूब मजा आएगा। फिल्म में कहीं राज बत्रा आपको अपने देसी अंदाज से हंसाएगा, कहीं श्याम प्रकाश की नादानियां आपको हंसाएंगी।

फिल्म के कुछ डायलॉग बहुत अच्छे है, जो आपका पूरा मनोरंजन करेंगे। जैसे-

  • टू डे गॉड प्रॉमिस आई स्पीक इंग्लिश .... बिकॉज़ इंग्लिश इज इन्डिया एंड इण्डिया इज इंगलिश
  • यार घर चेंज कर लिया.... टी वी एक्सचेंज कर लिया .... अब तू मुझे भी ईक्स्चेंज मत कर लियो ... मिट्ठू
  • आजकल के स्कूल भी न किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं हैं।

कमियां- फिल्म एक अच्छे मुद्दे पर बनाई गई है, लेकिन कहीं-कहीं यह फिल्म बिना लॉजिक के चलने लगती है। जैसे-

  • एक बिजनेसमैन जिसके पास बीएमडब्ल्यू भी है लेकिन वो चांदनी चौक की तंग गलियों में रहता है, वहां बीएमडब्ल्यू कैसे खड़ी होती है ये लॉजिक समझ से परे है।
  • चांदनी चौक से सामान लेकर राज और मीता रिक्शे से निकलते हैं (बीएमडब्ल्यू होते हुए भी) लेकिन वहां पहुंचने पर वो उतरते ऑटो से हैं, और दूसरे रिक्शे जिसमें सामान आ रहे थे वोअब ट्रक में बदल चुका होता है।
  • पुराने घर से सामान तो सारा आता है लेकिन नए घर में आने के बाद सारे फर्नीचर बदले हुए नजर आते हैं।
  • फिल्म जब चल रही थी उस वक्त ही मैं लंबे लेक्चर के लिए तैयार हो गई थी। ऐसी फिल्में बनती तो अच्छे मुद्दे पर हैं लेकिन खत्म होते-होते स्टीरियोटाइप हो जाती हैं। अंत में एक इमोशनल और लंबी सी स्पीच जो आपको कहीं भी इमोशनल नहीं करती है।
  • फिल्म हंसाती तो बहुत है लेकिन दिल्ली नर्सरी एमिशन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर होने के बावजूद आपको भावुक करने में नाकामयाब रहती है।

म्यूजिक- फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म के गाने हिट हो चुके हैं। सूट-सूट करदा, जिंदड़ी और इश्क तेरा तड़पावे फिल्म गाने अच्छे लगते हैं। गानों की वजह से फिल्म की रफ्तार बढ़ती है।

देखें या नहीं- फिल्म इस मैसेज के साथ खत्म होती है कि ‘इस देश में अंग्रेजी जबान नहीं, क्लास है।‘ यह फिल्म 1 बार देखी जा सकती है। खासकर दिल्ली में रहने वाले लोग इससे खुद को अच्छी तरह से रिलेट कर पाएंगे। इरफ़ान ख़ान और दीपक डोबरियाल की एक्टिंग के लिए आप यह फिल्म देख सकते हैं।

इस फिल्म को मेरी तरफ से 3 स्टार।