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Hindi News Explainers क्या है कच्चाथीवू द्वीप का मामला, इंदिरा गांधी ने इसे श्रीलंका को क्यों दे दिया? जानें क्या है पूरा विवाद?

क्या है कच्चाथीवू द्वीप का मामला, इंदिरा गांधी ने इसे श्रीलंका को क्यों दे दिया? जानें क्या है पूरा विवाद?

कच्चाथीवू द्वीप को लेकर राजनीति इन दिनों गरमाई हुई है। मेरठ की रैली में पीएम नरेंद्र मोदी ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस की सरकार पर हमला बोला। दरअसल इंदिरा गांधी ने एक समय इस द्वीप को श्रीलंका को दे दिया था।

Katchatheevu Island controversy why did Indira Gandhi give it to Sri Lanka history of Kachchatheevu- India TV Hindi Image Source : INDIA TV कहानी कच्चाथीवू द्वीप की?

कच्चाथीवू द्वीप, ये नाम आपने बीते कुछ दिनों में कहीं न कहीं तो सुना ही होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 मार्च को मेरठ में आयोजित चुनावी रैली में भी इसका जिक्र किया। उन्होंने कच्चाथावू द्वीप का जिक्र करते हुए कांग्रेस और इंडी गठबंधन पर निशाना साथा। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान इस द्वीप को लेकर कांग्रेस ने समझौता कर लिया। इससे पहले कच्चाथीवू द्वीप को लेकर पीएम मोदी ने कांग्रेस पर पिछले साल अगस्त महीने में निशाना साधा था। इस दौरान भी उन्होंने कांग्रेस को घेरने की कोशिश की थी। पीएम मोदी ने मेरठ की रैली में कहा कि कांग्रेस का एक और देश विरोधी कारनामा देश के सामने आया है। वहीं विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी इस बाबत आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और इस मामले पर बयान जारी किया। तमिलनाडु में भारत के समुद्र तट से कुछ दूर, कुछ किलोमीटर दूरी पर श्रीलंका और तमिलनाडु के बीच समंदर में एक टापू है। इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, इसका नाम है कच्चाथीवू द्वीप।

कहां है कच्चाथीवू द्वीप?

कच्चाथीवू द्वीप भारत-श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में 285 एकड़ में फैला एक आईलैंड है। आसान भाषा में बताएं तो कच्चाथीवू द्वीप भारत और श्रीलंका के बीच समंदर के बीच स्थित है। इसकी लंबाई और चौड़ाई की अगर बात करें तो यह 1.6 किलोमीटर लंबा और 300 मीटर चौड़ा है। भारतीय तट से यह आईलैंड 33 किमी दूर है। यानी रामेश्वरम के उत्तर-पूर्व में स्थित है। वहीं श्रीलंका के जाफना से इसकी दूरी करीब 62 किमी दूर है। यानी श्रीलंका के उत्तरी सिरे पर स्थित है। इस द्वीप पर केवल एक संरचना है जिसे 20 सदी में अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया था। दरअसल वह संरचना एक चर्च है। चर्च का नाम है सेंट एंथोनी। भारत और श्रीलंका दोनों ही देशों के पादरी इस चर्च का संचालन करते हैं। साल 2023 में इस द्वीप पर करीब 2500 श्रद्धालु चर्च पहुंचे थे। बता दें कि यह द्वीप निर्जन है। इसलिए यहां निवास कर पाना किसी के लिए संभव नहीं है। 

कच्चाथीवू द्वीप का क्या है इतिहास

दरअसल 14वीं शताब्दी में एक ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था। इसी ज्वालामुखी से निकले लावा से इस द्वीप का निर्माण हुआ था। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में इस द्वीप पर श्रीलंका के जाफना साम्राज्य का कब्जा था। लेकिन इसकी कंट्रोल 17वीं शताब्दी में रामनाद जमींदारी के हाथ में चला गया। बता दें कि रामनाथ जमींदारी रामनाथपुर से लगभग 55 किमी उत्तर पश्चिम में स्थित है। ब्रिटिश शासन के दौरान कच्चाथीवू द्वीप मद्रास प्रेसिडेंसी का भाग था। दरअसल इस द्वीप में अच्छी संख्या में मछलियां मिलती हैं। ऐसे में भारत और श्रीलंका की तरफ से पहली बार साल 1921 में इस द्वीप पर मछली पकड़ने की सीमा निर्धारित करने के लिए कच्चाथीवू द्वीप पर दावा किया गया। जब एक सर्वे कराया गया तो कच्चाथीवू को श्रीलंका में चिन्हित किया गया, यानी श्रीलंका का भाग बताया गया। ऐसे में ब्रिटिश प्रतिनिधि मंडल के समक्ष भारत ने रामनाद साम्राज्य का जिक्र किया और उनके कच्चाथीवू द्वीप पर स्वामित्व का हवाला दिया। मामला लटका रहा, इसे कई बार चुनौती मिली और साल 1974 तक इस विवाद को सुलझाया नहीं जा सका। 

कच्चाथीवू द्वीप को लेकर क्या हुआ समझौता?

कच्चाथीवू द्वीप को लेकर पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा बार-बार कांग्रेस पर निशाना साधा जा रहा है। पीएम मोदी बार-बार कांग्रेस को देश का विभाजन करने वाली पार्टी या देश को खंडित करने वाली पार्टी बता रहे हैं। दरअसल साल 1974 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। इस दौरान उन्होंने कई बार श्रीलंका के साथ कच्चाथीवू द्वीप के विवाद को सुलझाने की कोशिश की। इस समझौते के तहत एक हिस्से के रूप में जिसे भारत-श्रीलंकाई समुद्री समझौते के रूप में जाना जाता है। इंदिरा गांधी ने कच्चाथीवू द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया। इंदिरा गांधी को उस वक्त ऐसा लगा कि इस द्वीप का कोई भी रणनीतिक महत्व नहीं है। ऐसे में उन्होंने इस द्वीप को श्रीलंका सरकार को दे दिया। उन्हें ऐसा लगता था कि इस द्वीप पर भारत अपने दावे को खत्म कर श्रीलंका के साथ अपने रिश्ते मजबूत कर सकता है। 

हालांकि इस समझौते के तहत भारतीय मछुआरों को इस द्वीप पर मछली पकड़ने की अनुमति दी गई। लेकिन भारतीय मछुआरों के इस द्वीप पर मछली पकड़ने को लेकर विवाद अब भी जारी है। अबतक ये मुद्दा सुलझ नहीं सका है। दरअसल श्रीलंका की तरफ से भारतीय मछुआरों को केवल इस द्वीप पर आराम करने, जाल सुखाने और बिना वीचा के द्वीप पर बने चर्च तक जाने की अनुमति दी गई। यानी भारतीय मछुआरों को इस द्वीर से संबंधित सीमित अनुमति दी गई थी। साथ ही श्रीलंका ने भारतीय मछुआरों को इस द्वीप पर मछली पकड़ने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। साल 1976 में एक समझौता फिर हुआ। इसके तहत किसी भी देश को दूसरे के विशेष आर्थिक क्षेत्र में मछली पकड़ने से रोक दिया गया। बता दें कि यह द्वीप दोनों ही देशों के स्पेशल इकोनॉमिक जोन क्षेत्र के एकदम करीब आता है। ऐसे में यह विवाद बना रहा। 

साल 1983 से लेकर 2009 तक कच्चाथीवू द्वीप का विवाद हाशिये पर चला गया। इस बीच श्रीलंका में गृहयुद्ध शुरू हो गया। श्रीलंकाई सेना और लिट्टे के बीच युद्ध जारी रहा। इस दौरान भारतीय मछुआरों के लिए श्रीलंकाई क्षेत्र में जाना आम बात थी। इस कारण श्रीलंकाई मछुआरों में इसे लेकर नाराजगी थी। दरअशल भारतीय डॉलर जहाज न केवल कच्चाथीवू द्वीप में जाकर ज्यादा संख्या में मछलियां पकड़ते थे, बल्कि वे श्रीलंकाई मछुआरों की जालों और नावों को भी नुकसान पहुंचाते थे। साल 2009 में जब जाफना में गृहयुद्ध समाप्त हुआ तो श्रीलंका ने अपनी समुद्री सुरक्षा को बढ़ाना शुरू कर दिया। इसके बाद से भारतीय मछुआरों पर लगातार कार्रवाई होने लगी। बता दें कि इस द्वीप पर आज भी जब मछुआरे मछली पकड़ने जाते हैं तो श्रीलंकाई सेना द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। 

क्या बोले एक्सपर्ट

विदेश नीति के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी इस बाबत कहते हैं कि कच्चाथीवू द्वीप श्रीलंका को देना एक बड़ी रणनीतिक भूल थी। उन्होंने सोशल मीडिया साइट एक्स पर लिखा, कच्चाथीवू एक छोटा सा द्वीप हो सकता है, लेकिन सीमाओं को लेकर भारत के प्रधानमंत्रियों की उदारता का एक लंबा रिकॉर्ड रहा है। मणिपुर की कबाव घाटी और सिंधु जल का  बड़ा हिस्सा उपहार में देने से लेकर 1954 में तिबह्बत में अपने अलौकिक अधिकारों को छोड़ने और फिर 2003 में औपचारिक रूप से अपना महत्वपूर्ण तिब्बत कार्ड छोड़ने से लेकर तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को चीन के हिस्से के रूप में मान्यता देना, भारत के प्रधानमंत्रियों के उदालता का लंबा रिकॉर्ड है। उन्होंने आगे लिखा कि भारत अपने इतिहास को दोबारा याद कर रहा है। क्योंकि मोदी सहित लगभग हर भारतीय प्रधानमंत्री ने शासनकला की अनिवार्यता को सीखने या पिछली भूलों से सबक लेने के बजाय, विदेश नीति के पहिये को फिर से बनाने की कोशिश की है।