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Rajat Sharma's Blog: 1975 का आपातकाल- एक चश्मदीद की अनकही कहानी

एक रात पुलिस ने हमारे गुप्त ठिकाने पर छापा मारा। विजय गोयल अंधेरे का फायदा उठाकर भाग गए और मैं उस अखबार की कॉपियां समेटने के चक्कर में पकड़ा गया। पुलिस मुझे उठाकर थाने ले गई, जहां पहले तो उसने मुझे थप्पड़-घूंसे मारे और फिर डराया कि बर्फ की सिल्ली पर लिटा देंगे।

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उस दिन को बीते अब 45 साल हो चुके हैं जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए 25 जून, 1975 को भारत में आपातकाल लागू किया था। हालांकि इतिहासकारों, पत्रकारों और राजनेताओं ने आपातकाल पर बहुत कुछ लिखा है, वर्तमान पीढ़ी अभी भी यह अच्छी तरह नहीं जानती कि आपातकाल के दौरान वास्तव में हुआ क्या था।

12 जून, 1975 का वह दिन था जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक दिलेर जज, जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने उत्तर प्रदेश के रायबरेली में अपने चुनाव अभियान के दौरान भ्रष्ट आचरण अपनाने के आरोप में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था। इसके पहले से ही देश में लोक नायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार और मूल्य वृद्धि के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन चल रहा था। आंदोलन की शुरुआत गुजरात में छात्रों के विरोध-प्रदर्शन से हुई थी, और फिर यह तेजी से बिहार, यूपी और दिल्ली समेत अन्य राज्यों में फैलता चला गया। विपक्ष उन चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की मांग कर रहा था जो लोगों की उम्मीदों को पूरा करने में नाकाम रहे थे।

इंदिरा गांधी ने हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसने उन्हें कुछ शर्तों के साथ स्टे दे दिया, जिसके मुताबिक वह संसद में बैठ तो सकती थीं, लेकिन वोट नहीं दे सकती थीं। जैसे ही इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ने लगी, उन्होंने आपातकाल लगाने, संविधान को निलंबित करने और पूरे देश में प्रेस की सेंसरशिप का आदेश दे दिया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर और प्रकाश सिंह बादल समेत हजारों विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

वह काली रात मुझे आज भी याद है, जब लोकतंत्र का गला घोंटा गया था और भारत में फ्री प्रेस को जंजीरों में जकड़ दिया गया था। इमरजेंसी लागू होते ही सारी ताकत इंदिरा गांधी के बेटे संजय गाधी के हाथ में आ गई। कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता संजय गांधी के सामने कांपते थे। पूरा देश एक तरह से एक जेल में तब्दील हो गया था। आजादी से प्यार करने वाले देश के लोगों में डर और खौफ का माहौल था।

उस समय मैं 18 साल का था और दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पढ़ता था। मैं उस समय देश में चल रहे जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल था। अरुण जेटली तब दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष थे और पूरे देश की छात्र संघर्ष समिति के भी अध्यक्ष थे। मैं उनकी टीम का हिस्सा था। 25 जून की रात पुलिस अरुण जेटली को गिरफ्तार करने उनके घर पहुंची। अरुण जेटली के पिता वकील थे। उन्होंने पुलिस को कानूनी बातों में उलझाया और अरुण जेटली आधी रात को पिछले दरवाजे से निकल गए। उसी रात कॉलेज के हॉस्टल में हम सब लोग मिले। इसमें विजय गोयल भी थे। सुबह तक तो पता भी नहीं था कि रात को देश के बड़े-बड़े नेताओं जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई,अटल बिहारी वाजपेयी, चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर और प्रकाश सिंह बादल को जेल में डाल दिया गया था।

बतौर छात्र नेता हमें इमरजेंसी और इसके कठोर प्रावधानों के बारे में अंदाजा ही नहीं था। हमने दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक जुलूस निकाला और तानाशाही के खिलाफ नारे लगाए। हमारे नारे थे 'अगर सच कहना बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं।' आज भी वे नारे मेरे कानों में गूंजते हैं। जुलूस खत्म होने के बाद अरुण जेटली कॉफी हाउस में एक टेबल पर खड़े होकर छात्रों को संबोधित कर रहे थे। उसी वक्त चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया। जो पुलिसवाले हमें जानते थे और दोस्त थे, उन्होंने कान में कहा भाग जाओ। मैं और विजय गोयल स्कूटर पर बैठकर भाग निकले। लेकिन अरुण जेटली को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और तिहाड़ जेल भेज दिया।

इमरजेंसी के प्रावधानों के बारे में हमें बाद में पता चला। इसके प्रावधानों के तहत संविधान द्वारा जनता को दिए गए सारे अधिकार छीन लिए गए थे। पुलिस को देखते ही गोली मारने का अधिकार था। न बोलने की आजादी थी और न लिखने की। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई थी और हम तमाम छात्र नेता अंडरग्राउंड हो गए।

मैंने और विजय गोयल ने मिलकर गुप्त रूप से एक अखबार निकालने का फैसला किया। इस हस्तलिखित अखबार (हैंडरिटन न्यूजपेपर) का नाम रखा 'मशाल'। इस अखबार में हमने पूरी बैकग्राउंड लिखी कि कैसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का इलेक्शन सेटअसाइड कर दिया था, क्यों लोग उनके इस्तीफे की मांग कर रहे थे, क्यों जयप्रकाश नारायण ने 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' का नारा दिया। हम इस अखबार में लिखते थे कि कैसे संजय गांधी पर्दे के पीछे से एक असंवैधानिक ताकत के रूप में सत्ता का इस्तेमाल करते थे। हम अपने अखबार में जेल में बंद नेताओं का हाल भी लिखते थे, और उनके संदेश छापते थे। रात में इस साइक्लोस्टाइल अखबार की कॉपियां अंधेरे में लोगों के घरों में डाल देते थे।

एक रात पुलिस ने हमारे गुप्त ठिकाने पर छापा मारा। विजय गोयल अंधेरे का फायदा उठाकर भाग गए और मैं उस अखबार की कॉपियां समेटने के चक्कर में पकड़ा गया। पुलिस मुझे उठाकर थाने ले गई, जहां पहले तो उसने मुझे थप्पड़-घूंसे मारे और फिर डराया कि बर्फ की सिल्ली पर लिटा देंगे। मैं बहुत दुबला-पतला था, लेकिन पता नहीं क्यों डर नहीं लगा। रात में पुलिस ने कुर्सी पर बैठा कर पैर सामने बांध दिए और सिनस पर डंडे मारे। खून भी निकला लेकिन पता नहीं कहां से हिम्मत और ताकत आई कि मैंने उन्हें अपने सहयोगियों के ठिकानों के बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर दिया।

17 या 18 साल की उम्र में किशोरों को आमतौर पर लोकतंत्र और स्वतंत्रता के वास्तविक मूल्यों का एहसास नहीं होता है। लेकिन मुझे दुख था कि हमारे संविधान में निहित अभिव्यक्ति की आजादी को रौंद दिया गया। मुझे तिहाड़ जेल भेज दिया गया, जहां मैंने दस महीने बिताए। जेल के अंदर बिताए गए दिनों की एक अलग ही कहानी है जिसके बारे में मैं बाद में कभी बताऊंगा। आज की पीढ़ी के लोग समझ भी नहीं पाएंगे कि आपातकाल के उन इक्कीस महीनों में कितना खौफ था, कितनी घुटन थी। तब न प्राइवेट न्यूज चैनल थे और न ही सोशल मीडिया। दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर सिर्फ वही खबरें बताई जाती थीं जिन्हें सरकार चाहती थी। 

मैं एक किस्सा आपको बताता हूं। एक दिन संजय गांधी ने तय किया कि इमरजेंसी के समर्थन के लिए फिल्म सितारों का शो किया जाए। दिल्ली में शो ऑर्गेनाइज किया गया। इस शो का नाम था 'गीतों भरी शाम' और इसका आयोजन यूथ कांग्रेस ने किया था। सारे फिल्म स्टार्स को मुफ्त में आना पड़ा। दिलीप कुमार, राज कपूर से लेकर लता मंगेशकर, मुकेश कुमार, अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, राखी,अमजद खान और ऋषि कपूर जैसे तमाम फिल्मी सितारे आए। सिर्फ गायक किशोर कुमार ने आने से इनकार कर दिया। बस उसी दिन से किशोर कुमार के गाने रेडियो पर बैन कर दिए गए। फिल्म प्रोड्यूशर्स को हिदायत दी गई कि कोई किशोर कुमार के गीतों को अपनी फिल्मों में रिकॉर्ड न करे। उस जमाने में ऐसी तानाशाही थी।

मेरे पास ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जिन्हें मैं बाद में कभी बताऊंगा। 1977 में तानाशाही का काला अंधेरा छंटा और 21 महीने के आपातकाल के बाद पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस को साफ करते हुए जनता पार्टी सत्ता में आ गई। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों क्रमशः रायबरेली और अमेठी से चुनाव हार गए। जनता पार्टी की नई सरकार ने संविधान में कुछ ऐसे संशोधन किए कि कोई भी भावी सरकार आपातकाल न लगा सके और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीन न सके।

आज के दिन हमें उन तमाम लोगों को याद करना चाहिए जिनके त्याग और तपस्या से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बच पाई। तिहाड़ जेल में मैने देखा कि RSS और जमात-ए-इस्लामी के नेता, जनसंघ और समाजवादी नेता, अकाली और कांग्रेस के बागी नेता, सब साथ थे और सबने मिलकर आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया। देश की जनता ने अपनी बैलट पावर के दम पर यह साफ संदेश दे दिया कि वह दो वक्त भूखी रह सकती है, पुलिस का जुल्म सह सकती है लेकिन अपने बोलने की आजादी को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती।

हमें 1975 के आपातकाल के दौरान हुए जुल्म को याद रखना चाहिए। आज से 45 साल पहले हमने देश भर में जैसी एकजुटता देखी थी, वह आज ऐसे समय में कमजोर नहीं होनी चाहिए जब देश को चीन से गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। आज भी पूरा देश चीन के खिलाफ एकजुट होकर मजबूती से खड़ा है, सिर्फ कुछ कांग्रेसी नेताओं को छोड़कर जिन्होंने, सिर्फ वही जानते हैं कि क्यों, एक अलग राह पकड़ी हुई है। (रजत शर्मा)

देखिए, 'आज की बात' रजत शर्मा के साथ, 25 जून 2020 का पूरा एपिसोड

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