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Hindi News लाइफस्टाइल हेल्थ World Heart Day 2018: तेजी से बढ़ रही है हार्ट फेलियर से मरने वालों की संख्या, ऐसे करें खुद का बचाव

World Heart Day 2018: तेजी से बढ़ रही है हार्ट फेलियर से मरने वालों की संख्या, ऐसे करें खुद का बचाव

देश में ह्रदयधमनी रोगों यानी कार्डियोवैस्कुलर डिसीज (सीवीडी) के कारण होने वाली मृत्यु की कुल संख्या 1990 में 15 फीसदी थी, जो 2016 में बढ़कर 28 फीसदी हो गई है। हार्ट फेलियर इन सभी सीवीडी में मृत्यु दर का प्रमुख कारण है,

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हेल्थ डेस्क: देश में ह्रदयधमनी रोगों यानी कार्डियोवैस्कुलर डिसीज (सीवीडी) के कारण होने वाली मृत्यु की कुल संख्या 1990 में 15 फीसदी थी, जो 2016 में बढ़कर 28 फीसदी हो गई है। हार्ट फेलियर इन सभी सीवीडी में मृत्यु दर का प्रमुख कारण है, जिसमें करीब 23 फीसदी मरीजों की इस रोग की पहचान होने के एक वर्ष के भीतर मौत हो जाती है।

 

वैश्विक चिकित्सा जर्नल 'लैंसेट' में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से यह जानकारी मिली है। इसे देखते हुए विश्व हृदय दिवस पर गुरुवार को देश के चिकित्सा विशेषज्ञों ने हृदय रोगों के संकेतों और लक्षणों पर अधिक ध्यान देने का आग्रह किया है, ताकि आरंभिक निदान और उपचार सुनिश्चित किया जा सके। यह हृदय रोगों के चलते होने वाली मौतों की संख्या को कम करने में मदद कर सकता है।

अध्ययन में बताया गया कि इस्केमिक (आईएचडी) हृदय रोग के दुनियाभर में मामलों का करीब चौथाई हिस्सा अकेले भारत में होता है। दिल में खून की कम आपूर्ति इस बीमारी का प्रमुख लक्षण है। इस्केमिक हृदय रोग भारतीय मरीजों में हार्ट फेलियर का मुख्य कारण है। इस्केमिक हृदय रोग सबसे ज्यादा पंजाब, महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु में पाए गए है, जबकि इनके बाद हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल का स्थान है। (ज्यादा शराब पीना हो सकता है खतरनाक, हो सकती है ये जानलेवा बीमारी )

मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल (नई दिल्ली) के सीनियर कंसल्टेंट (इंटर्वेन्शनल कॉर्डियोलॉजी) डॉ. विवेक कुमार ने कहा, "भारत में हृदय रोगों खासतौर से हार्ट फेल्योर को लेकर लोगों में जागरूकता काफी कम है। लोगों में हार्ट फेल्योर के बारे में बुनियादी समझ का आभाव है। यह एक बढ़ता रोग है, जोकि हार्ट की मांसपेशियों को कमजोर कर देता है और पूरे शरीर में रक्त पम्प करने की इसकी क्षमता को प्रभावित करता है। इसे अक्सर गलती से हार्ट अटैक समझ लिया जाता है, जोकि एक अचानक होने वाली कार्डिएक घटना है।" (30 साल की उम्र के लोग तेजी से हो रहे है दिल की बीमारी के शिकार, भूलकर भी इन संकेतों को न करें इग्नोर )

उन्होंने आगे कहा, "हार्ट फेल्योर के अधिकतर मरीजों को रोग के एडवांस्ड स्टेज में अस्पताल में भर्ती कराया जाता है, क्योंकि वे लक्षणों को पहचान नहीं पाते हैं और उन्हें शुरूआती चरण में इसके उपचार के फायदों के बारे में पता नहीं होता है। हमारे अस्पताल में किसी महीने में हार्ट रोगों से ग्रस्त सभी मरीजों में 30-40 फीसदी मरीज हार्ट फेल्योर के होते हैं, जिसमें युवा रोगी भी शामिल हैं।"

विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि नाम के बावजूद, हार्ट फेल्यर का मतलब यह नहीं है कि दिल बंद हो रहा है। इसका मतलब है कि दिल की कमजोर मांसपेशियां किसी व्यक्ति के शरीर की ऑक्सीजन और पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त रक्त पंप नहीं कर रही हैं।

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हार्ट फेल्योर के जोखिम को बढ़ाने वाले कारकों में इस्केमिक हृदय रोग, कोरोनरी आर्टरी डिसीज (सीएडी), दिल का दौरा, उच्च रक्तचाप, दिल के वाल्व का रोग, कार्डियो-मायोपैथी, फेफड़ों की बीमारी, मधुमेह, मोटापा, शराब और नशीली दवाओं का सेवन और हृदय रोगों का पारिवारिक इतिहास शामिल हैं।

खतरे का संकेत देने वाले सामान्य लक्षणों में दम फूलना, टखनों या पैरों या पेट में सूजन, सोते समय सही ढंग से सांस लेने के लिए ऊंचे तकियों की जरूरत होना और रोजाना के कामों के दौरान ऐसी थकान जिसका कारण समझ में न आए, शामिल हैं।

कार्डियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के. शरत चंद्र ने कहा कि, "भारत में हार्ट फेलियर के बढ़ते बोझ और इससे जुड़ी उच्च मृत्यु-दर को देखते हुए, इसे जन स्वास्थ्य की प्राथमिकता माना जाना आवश्यक है। अक्सर, लोगों में इस रोग का पता तब चलता है जब उन्हें गंभीर लक्षणों या इससे जुड़ी दिल की मांसपेशियों की क्षति के चलते पहली बार अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। इसलिए, जनता के बीच हार्ट फेल्यर के लक्षणों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है।"

अध्ययन में पाया गया कि 1990 से 2013 तक देश में हार्ट फेल्यर के मामले 140 फीसदी बढ़े हैं। जीवनशैली में बदलाव, तनाव की मार, नमक, चीनी और वसा की खपत और वायु प्रदूषण में तेजी से बढ़ोतरी के चलते इसकी जकड़ में आने वाला दायरा बढ़ रहा है, यहां तक कि युवा भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। भारत में हार्ट फेलियर के रोगियों की औसत उम्र 59 वर्ष है जो अमेरिका और यूरोप के मरीजों की तुलना में लगभग 10 वर्ष कम है।

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