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Hindi News भारत राष्ट्रीय Rajat Sharma's Blog: कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट के कदम से लोग क्यों खुश नहीं हैं?

Rajat Sharma's Blog: कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट के कदम से लोग क्यों खुश नहीं हैं?

किसान पहले सरकार की नहीं सुन रहे थे और अब कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं सुनेंगे, तो सवाल उठता है कि वे लोकतंत्र में फिर किसकी सुनेंगे?

Rajat Sharma Blog, Rajat Sharma Blog on Supreme Court, Rajat Sharma Blog on Farmers- India TV Hindi Image Source : INDIA TV India TV Chairman and Editor-in-Chief Rajat Sharma.

तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दो बड़े कदम उठाए: पहला तो यह कि अदालत ने तीनों कानूनों पर फिलहाल रोक लगा दी, और दूसरा एक एक्सपर्ट कमेटी भी बना दी, जो किसानों से बात करके 2 महीने में सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देगी।

अब मुसीबत ये है कि सरकार इस बात से खुश नहीं है कि कानूनों पर रोक लगा दी गई, और किसान इस बात से नाराज़ हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने उनसे बिना पूछे कमेटी बना दी। एक तरफ सरकार के समर्थकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा पास किए गए कानून पर रोक लगाने का कोई हक नहीं है, लेकिन राष्ट्रहित में, सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानेगी। वहीं, दूसरी तरफ किसान कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई है वे उससे बात तक नहीं करेंगे। किसान नेताओं का आरोप है कि इस कमेटी में शामिल एक्सपर्ट्स नए कृषि कानूनों के समर्थक हैं। किसान नेता पूछ रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को कमेटी के चारों मेंबर्स के नाम किसने सुझाए और यह कदम किसकी अपील पर उठाया गया।

किसान नेताओं ने साफ कह दिया है कि जब तक तीनों कानून वापस नहीं होंगे, तब तक वे सड़क पर जमे रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने किसानों से अपील की है कि वे कम से कम सर्दी में सड़क पर बैठे बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं को वापस भेजें लेकिन किसानों ने एलान कर दिया कि कोई वापस नहीं जाएगा और आंदोलन जारी रहेगा। कल तक जो किसान नेता सुप्रीम कोर्ट की तारीफ कर रहे थे, आज वही आरोप लगा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट तो सरकार की मदद कर रहा है। पहले जो किसान नेता सरकार पर शक कर रहे थे, अब वही सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं।

किसान पहले सरकार की नहीं सुन रहे थे और अब कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं सुनेंगे, तो सवाल उठता है कि वे लोकतंत्र में फिर किसकी सुनेंगे?

लोकतंत्र में सरकार कानून और संविधान के आधार पर काम करती है। ये तो नहीं हो सकता कि मेरे मन की नहीं हुई तो नहीं सुनेंगे। इस तरह के रुख से तो अराजकता पैदा हो सकती है। जिसका मन होगा वह सड़क पर बैठ जाएगा, और जब तक उसकी मांग पूरी नहीं होगी तब तक रोड को बंद रखेगा।

क्या जिस संसद को देश की जनता ने चुना, वह कानून नहीं बनाएगी? क्या जिस सरकार को देश की जनता ने चुना उसको कानून लागू करने का हक नहीं दिया जाएगा? क्या अब सारे फैसले सड़क पर होंगे? क्या लोग अब सुप्रीम कोर्ट की अपील भी नहीं सुनेंगे?

यह बेहद दुखद है कि किसान कार्यपालिका, विधायिका या न्यायपालिका, किसी की भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। मंगलवार को किसान नेताओं ने साफ आरोप लगाया कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार की मदद कर रहा है, और कमेटी का गठन भी सरकार को बचाने के लिए किया गया है। उन्होंने कहा कि कमेटी के सदस्य भी सरकार की मर्जी के हैं।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच ने किसानों से बात करने के लिए जो कमेटी बनाई है, उसके चारों एक्सपर्ट्स के बारे में आपको बता देता हूं।

इस कमेटी के अध्यक्ष अशोक गुलाटी हैं, जो कि एक एग्रीकल्चर इकॉनमिस्ट हैं। वह भारतीय अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (ICRIER) में एक प्रोफेसर थे और 1991 से 2001 तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार काउंसिल के मेंबर रहे हैं। कमेटी के दूसरे मेंबर डॉक्टर प्रमोद कुमार जोशी हैं। वह अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFPRI) से जुड़े रहे हैं और इसके डारैक्टर भी रह चुके हैं। इनके अलावा बाकी के 2 मेंबर किसान संगठनों के नेता हैं, भूपिंदर सिंह मान राज्यसभा सांसद रह चुके हैं और भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं जबकि अनिल घनवट शिवकेरी संगठन से ताल्लुक रखते हैं जिससे महाराष्ट्र के लाखों किसान जुड़े हुए हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भूपिंदर सिंह मान ने बीकेयू के अपने समर्थकों से कांग्रेस के समर्थन में मतदान करने के लिए कहा था क्योंकि उन्होंने किसानों के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र को बीजेपी के घोषणापत्र से बेहतर पाया था। अनिल घनवट और अशोक गुलाटी भी कभी किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े थे।

केंद्र और किसान नेताओं के बीच शुरुआती दौर की बातचीत के दौरान, सरकार से कृषि विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन किसान नेता इसके लिए तैयार नहीं हुए। अब सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बनाई है जिसमें कृषि के एक्सपर्ट हैं तो किसान नेता कह रहे हैं कि इस कमेटी के मेंबर्स से वे इसलिए बात नहीं करेंगे कि ये लोग नए कृषि कानूनों के समर्थक हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि किसान नेता पहले चरण में केंद्र के साथ बातचीत के लिए तैयार ही क्यों हुए यदि उनकी मुख्य मांग तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करना है?

भले ही सरकार कृषि कानूनों पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के कदम से खुश नहीं है, लेकिन फिर भी वह कमेटी के गठन के लिए सहमत हो गई है। सरकार का कहना है कि संसद में पास हुए कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस तरह रोक लगाना ठीक नहीं है। कानून बनाने का काम संसद का है, विधानसभाओं का है और इन्हें लागू करने का काम सरकार का है। संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, सबकी भूमिकाएं सुनिश्चित की गई हैं।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका तभी आती है जब या तो संविधान की अवहेलना की गई हो या मौलिक अधिकारों का हनन होता हो। इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है। ये संकट तो कुछ किसान संगठनों द्वारा आर्टीफिशियली क्रिएट किया गया है।

मुझे इस बात पर भी हैरत हुई कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार ने इस मामले को ठीक तरह से हैंडल नहीं किया। किसानों को धरने पर बैठे हुए 45 दिन हो गए और उन्होंने हाइवे को ब्लॉक कर रखा है। लेकिन सरकार ने कभी बल प्रयोग नहीं किया और पुलिस ने काफी संयम दिखाया है।

जब ऐसी अफवाह उड़ी कि पुलिस रातोंरात किसानों को लाठी और गोली के बल पर हटाएगी तो पुलिस अफसरों ने जाकर किसानों को समझाया और इस शक को दूर किया। सरकार के 3-3 मंत्रियों ने किसान नेताओं से कई-कई राउंड में बात की। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि सरकार ने संवेदना नहीं दिखाई, या इस मामले को ठीक से हैंडल नहीं किया।

सरकार तो अभी भी तीनों कृषि कानूनों में संशोधन करने के लिए तैयार है, लेकिन जिद पर कौन अड़ा है ये इस बात से साफ हो जाता है कि किसान संगठनों के नेता कह रहे हैं कि जब तक कानून वापस नहीं होगा तब तक घर वापसी नहीं होगी। एक और बात जो किसान नेताओं की जिद दिखाती है वो ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों पर रोक लगा दी, तो भी किसान 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड निकालने पर अड़े हुए हैं।

भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि वह 26 जनवरी को ट्रैक्टर पर तिरंगा लगाकर रैली निकालेंगे। वहीं, पंजाब के एक अन्य किसान नेता ने कहा है कि उनका आंदोलन गणतंत्र दिवस के बाद भी जारी रहेगा।

अब एक बात बिल्कुल साफ हो गई है कि किसानों का आंदोलन पूरी तरह शक और अविश्वास पर आधारित है।

पहले किसान नेता कहते थे कि सरकार एमएसपी और मंडियों को लेकर जो कह रही है उस पर उन्हें शक है। मंगलवार को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर यह कहते हुए शक जाहिर किया कि शीर्ष अदालत सरकार की मदद कर रही है। किसान नेताओं को सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी के मेंबर्स पर भी विश्वास नहीं है, और शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था।

जो कानून संसद ने पास किए हैं उनके बारे में सड़क पर टकराव करके फैसला कैसे हो सकता है? यदि आंदोलन कर रहे लोग सरकार की नहीं सुनेंगे, सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं सुनेंगे तो रास्ता कैसे निकलेगा? अगर देश में फैसले इस आधार पर होंगे कि किसने कितनी ज्यादा सड़क घेरी हुई है तो ये गलत परंपरा पड़ जाएगी। फिर एक बडा सवाल ये है कि जो लोग आंदोलन नहीं करेंगे, सड़कों पर नहीं उतरेंगे, लेकिन मेजॉरिटी में होंगे तो क्या उनकी बात भी नहीं सुनी जाएगी?

हमारे देश में बड़ी संख्या में वैसे किसान और उनके संगठन हैं जिन्हें लगता है कि इन कानूनों से उनका फायदा हुआ है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया बल्कि ये कह दिया कि सरकार ने सलाह-मशविरा नहीं किया। नए कृषि कानूनों पर पिछले 20 साल से चर्चा चल रही है। कई कमेटियां बनीं, कई एक्सपर्ट्स ने अपनी राय दी, और कई किसान संगठनों ने ऐसे ही कानून बनाने की मांग की।

बीकेयू के राकेश टिकैत जैसे किसान नेता भी हैं, जिन्होंने पहले तो नए कृषि कानूनों का स्वागत किया था, लेकिन अब अपने समर्थकों के साथ उन्हीं कानूनों का विरोध कर रहे हैं और पिछले 48 दिनों से धरने पर बैठे हैं। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट कैसे कह सकती है कि बिना कंसल्टेशन के फैसला हुआ?

अब तो ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि न तो नए कृषि कानूनों का समर्थन करने वाले फैसले से खुश हैं और न ही कृषि कानूनों का विरोध करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ हैं। टकराव अभी भी जारी है और इसके चलते आखिरकार भारत का आम आदमी ही कष्ट झेल रहा है। (रजत शर्मा)

देखें: ‘आज की बात, रजत शर्मा के साथ’ 12 जनवरी, 2021 का पूरा एपिसोड

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