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Hindi News भारत राष्ट्रीय नहीं रहे प्रसिद्ध साहित्यकार और पूर्व सांसद बालकवि बैरागी, 87 साल की उम्र में हुआ निधन

नहीं रहे प्रसिद्ध साहित्यकार और पूर्व सांसद बालकवि बैरागी, 87 साल की उम्र में हुआ निधन

बालकवि बैरागी की गिनती देश के प्रमुख कवियों में होती थी। हिन्दी काव्य मंचों के लोकप्रिय कवि के तौर पर जाने जाते थे।

<p>प्रसिद्ध साहित्यकर...- India TV Hindi प्रसिद्ध साहित्यकर एंव कवि बालकवि बैरागी।

मनासा: पूर्व राज्यसभा सांसद और देश के प्रसिद्ध साहित्यकर एंव कवि बालकवि बैरागी का रविवार शाम को निधन हो गया। 87 साल के बालकवि बैरागी ने मध्य प्रदेश के मनासा में अपने निवास स्थान पर अंतिम सांस ली। बैरागी जी का जन्म मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की मनासा तहसील के रामपुर गांव में 10 फरवरी 1931 को हुआ था। बैरागी जी साहित्य एवं कविता में बचपन से ही रूचि थी। हिंदी काव्य मंचों पर वो सबसे लोकप्रिय कवि के तौर पर जाने जाते थे। जीवन भर कविता से जुड़े रहे बैरागी जी ने कई प्रसिद्ध रचनाओं की सृजन किया।

उनकी लिखी कुछ प्रमुख रचना हैं 'गौरव-गीत, 'दरद दीवानी, 'दो टूक, 'भावी रक्षक देश के' दीवट(दीप पात्र) पर दीप, झर गये पात, गन्ने मेरे भाई!!, जो कुटिलता से जियेंगे, अपनी गंध नहीं बेचूंगा, मेरे देश के लाल, नौजवान आओ रे !, सारा देश हमारा। इसके अलावा बैरागी जी की लिखी बाल कविताएं भी काफी प्रसिद्ध हुईं। उनकी लिखी कुछ प्रमुख बाल कविताएं हैं बाल कविताएं- शिशुओं के लिए पांच कविताएं, विश्वास, चांद में धब्बा, चाय बनाओ, आकाश, खुद सागर बन जाओ। बालकवि बैरागी कोई बड़े पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया। बैरागीजी काफी समय राजनीति में भी सक्रिए रहे। मध्य प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में उनकी गिनती होती थी।

मध्य प्रदेश की अर्जुन सिंह सरकार में बैरागी जी खाद्यमंत्री भी रहे इसके अलावा राज्यसभा के सांसद भी रहे। जानकारी के मुताबिक, रविवार को नीमच में एक कार्यक्रम में शामिल होकर वह मनासा पहुंचे। उसके कुछ देर बाद ही उन्होंने अंतिम सांस ली। निधन के बाद उनके निवास स्थान पर राजनीतिक हस्तियां का जमावड़ा लगना शुरू हो गया है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिहं चौहान समेत राजनीति और साहित्य से जुड़ी तमाम हस्तियों ने उनके निधन पर शोक जताया है।

दीवट(दीप पात्र) पर दीप / बालकवि बैरागी

हैं करोडों सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के,

जो न दे हमको उजाला, वे भला किस काम के?

जो रात भर जलता रहे उस दीप को दीजै दु‍आ

सूर्य से वह श्रेष्ठ है, क्षुद्र है तो क्या हुआ!

वक्त आने पर मिला लें हाथ जो अँधियार से

संबंध कुछ उनका नही है सूर्य के परिवार से!

देखता हूँ दीप को और खुद मे झाँकता हूँ मैं

फूट पडता है पसीना और बेहद काँपता हूँ मैं

एक तो जलते रहो और फिर अविचल रहो

क्या विकट संग्राम है,युद्धरत प्रतिपल रहो

हाय! मैं भी दीप होता, जूझता अँधियार से

धन्य कर देता धरा को ज्योति के उपहार से!!

यह घडी बिल्कुल नही है शान्ति और संतोष की

सूर्यनिष्ठा संपदा होगी गगन के कोष की

यह धरा का मामला है, घोर काली रात है

कौन जिम्मेवार है यह सभी को ज्ञात है

रोशनी की खोज मे किस सूर्य के घर जाओगे

दीपनिष्ठा को जगाओ, अन्यथा मर जाओगे!!

आप मुझको स्नेह देकर चैन से सो जाइए

स्वप्न के संसार मे आराम से खो जाइए

रात भर लडता रहूंगा मै घने अँधियार से

रंच भर विचलित न हूंगा मौसमो की मार से

मैं जानता हूं तुम सवेरे मांग उषा की भरोगे

जान मेरी जायेगी पर ऋण अदा उसका करोगे!!

आज मैने सूर्य से बस जरा-सा यों कहा-

आपके साम्राज्य मे इतना अँधेरा क्यों रहा?

तमतमाकर वह दहाडा--मै अकेला क्या करूँ?

तुम निकम्मों के लिये मै ही भला कब तक मरूँ?

आकाश की आराधना के चक्करों मे मत पडो

संग्राम यह घनघोर है, कुछ मै लड़ूँ, कुछ तुम लड़ो !!

अपनी गंध नहीं बेचूंगा / बालकवि बैरागी​

चाहे सभी सुमन बिक जाएं
चाहे ये उपवन बिक जाएं
चाहे सौ फागुन बिक जाएं
पर मैं गंध नहीं बेचूंगा- अपनी गंध नहीं बेचूंगा

जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
लक्षमन जैसी चौकी देकर जिन कांटों ने जान बचाई
इनको पहिला हक आता है चाहे मुझको नोचें तोडें
चाहे जिस मालिन से मेरी पांखुरियों के रिश्ते जोडें

ओ मुझ पर मंडरानेवालों
मेरा मोल लगानेवालों
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूंगा
अपनी गंध नहीं बेचूंगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।

मौसम से क्या लेना मुझको ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा खाता होगा तो खाएगा
कोमल भंवरों के सुर सरगम पतझारों का रोना-धोना
मुझ पर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना
ओ नीलम लगानेवालों
पल-पल दाम बढानेवालों
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूंगा
अपनी गंध नहीं बेचूंगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।

मुझको मेरा अंत पता है पंखुरी-पंखुरी झर जाऊंगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग एक-एक के घर जाऊंगा
भूल-चूक की माफी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊं
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूंगा
अपनी गंध नहीं बेचूंगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।

मुझसे ज्यादा अहं भरी है ये मेरी सौरभ अलबेली
नहीं छूटती इस पगली से नीलगगन की खुली हवेली
सूरज जिसका सर सहलाए उसके सर को नीचा कर दूं?
ओ प्रबंध के विक्रेताओं
महाकाव्य के ओ क्रेताओं
ये व्यापार तुम्हीं को शुभ हो मुक्तक छंद नहीं बेचूंगा
अपनी गंध नहीं बेचूंगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।

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