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इन महिलाओं के बिना कैसे स्वतंत्र होता भारत

नई दिल्ली: 14 अगस्त 1947, एक ऐसी रात जब लोग सोए तो गुलाम देश में थे, लेकिन अगली सुबह उनकी आजादी की सुबह थी यानी 15 अगस्त 1947। आज भी हमें लगता है कि देश

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नई दिल्ली: 14 अगस्त 1947, एक ऐसी रात जब लोग सोए तो गुलाम देश में थे, लेकिन अगली सुबह उनकी आजादी की सुबह थी यानी 15 अगस्त 1947। आज भी हमें लगता है कि देश आजाद कराने में हमारे महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे महान पुरुषों का ही योगदान था। यदि हम आपको बताए कि भारत की आजादी की लड़ाई में महान पुरुषों के अलावा महान महिलाओं का भी अहम योगदान रहा है तो आप चौंक जाएंगे। यह बात चौकाने वाली जरूर है, लेकिन यह सच है कि आजादी में महिलाओं का भरपूर योगदान रहा है।

1857 की क्रांति के बाद हिंदुस्‍तान की धरती पर हो रहे परिवर्तनों ने जहां एक ओर नवजागरण की जमीन तैयार की, वहीं विभिन्‍न सुधार आंदोलनों और आधुनिक मूल्‍यों और रौशनी में रूढ़िवादी मूल्‍य टूट रहे थे, हिंदू समाज के बंधन ढीले पड़ रहे थे और स्त्रियों की दुनिया चूल्‍हे-चौके से बाहर नए आकाश में विस्‍तार पा रही थी।

इस बात का इतिहास साक्षी है कि एक कट्टर रूढ़िवादी हिंदू समाज में इसके पहले इतने बड़े पैमाने पर महिलाएं सड़कों पर कभी नहीं उतरी थीं। पूरी दुनिया के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं। गांधी ने कहा था कि हमारी मां-बहनों के योगदान के बगैर यह संघर्ष संभव नहीं था। जिन महिलाओं ने आजादी की लड़ाई को अपने साहस से धार दी एक नई पहचान दी, हम यहां उनका जिक्र कर रहें हैं। जिन महिलाओं ने महान पुरुषों के साथ-साथ देश की लड़ाई में अपना अहम योगदान देकर देश को गुलामी के जंजीर से बाहर निकाला-

1) कमला नेहरू :  दिल्ली के प्रमुख व्यापारी पंड़ित 'जवाहरलालमल' और राजपति कौल की बेटी कमला नेहरू का विवाह 17 साल की छोटी उम्र में सन् 1916 में जवाहर लाल नेहरू के साथ हुआ था। कमला जब ब्‍याहकर इलाहाबाद आईं तो एक सामान्‍य, कमउम्र नवेली ब्‍याहता भर थीं। सीधी-सादी हिंदुस्‍तानी लड़की, लेकिन वक्त के साथ कोमल बहू लौह-महिला साबित हुई जो कि धरने-जुलूस में अग्रेंजों का सामना करने लगी और तो और वो एक मर्द की तरह जेल की पथरीली धरती पर भी सोईं। कमला नेहरू ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने पति जवाहरलाल नेहरू का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। नेहरू के राष्ट्रीय आंदोलन में कूदने पर कमला नेहरू को भी अपनी क्षमता दिखाने का अवसर मिला। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्‍होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की। कमला नेहरू के आखिरी दिन मुश्किलों से भरे थे। अस्‍पताल में बीमार कमला की जब स्विटजरलैंड में टीबी से मौत हुई, उस समय भी नेहरू जेल में ही थे।

2) सरोजनी नायडू : भारत कोकिला को नाम से जानी जाने वाली सरोजनी नायडू सन् 1914 में पहली बार महात्मा गांधी से इंग्लैंड में मिली और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गईं। सरोजनी नायडू ने एक कुशल सेना की भांति अपना परिचय हर क्षेत्र फिर चाहे वह ''सत्याग्रह'' हो या ''संगठन'' में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व भी किया जिसके लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। फिर भी उनके कदम नहीं रुके संकटों से न घबराते हुए वे एक वीर विरांगना की भांती गांव-गांव घूमकर देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्यों के लिए प्रेरित करती रहीं और याद दिलाती रहीं। अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण सन् 1932 में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व दक्षिण अफ्रीका भी गई। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह उत्तरप्रदेश की पहली महिला राज्यपाल भी बनीं।

3) इंदिरा गांधी :  पंडित जवाहर लाल नेहरू की बेटी एवं देश की प्रधामनंत्री रह चुकी इंदिरा गांधी के संघर्ष और आजादी की लड़ाई में योगदान और उनके उपर आई समस्याओं के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं इंदिरा गांधी जब छोटी बच्ची थीं जब उनके पिता जेल में और मां अस्पताल में। और उस समय कोई देखने वाला नहीं था। हर 6 महीने पर स्कूल बदलना पड़ता था। कई बार तो उन्हें 10 किलोमीटर तक पैदल ही स्कूल जाना पड़ता था। इंदिरा गांधी को यह बखूबी पता था कि उनके पिता देश को आजाद कराने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं भारतीय लोगों को गुलामी से आजाद कराना उनका मकसद था। इस काम में इंदिरा गांधी ने भी अपने पिता का प्रकारांतर से इंदिरा भी इस लड़ाई में उनके साथ थी।

4) सिस्टर निवेदिता : यदि भारत में आज हम विदेशियों को याद करते हैं या फिर उन पर गर्व करते हैं तो उनमें सिस्टर निवेदिता का नाम शीर्ष में आता है। जिन्होंने न केवल महिला शिक्षा के क्षेत्र में ही महत्वपूर्ण योगदान दिया बल्कि भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देशभक्तों की खुलेआम मदद भी की। नोबेल के जीवन में निर्णायक मोड़ 1895 में उस समय आया जब लंदन में उनकी स्वामी विवेकानंद से मुलाकात हुई। स्वामी विवेकानंद के उदात्त दृष्टिकोण, वीरोचित व्यवहार और स्नेहाकर्षण ने निवेदिता के मन में यह बात पूरी तरह बिठा दी कि भारत ही उनकी वास्तविक कर्मभूमि है। भारत स्‍त्री-जीवन की उदात्‍तता उन्‍हें आकर्षित करती थी, लेकिन उन्‍होंने स्त्रियों की शिक्षा और उनके बौद्धिक उत्‍थान की जरूरत को महसूस किया और इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम भी किया। प्‍लेग की महामारी के दौरान उन्‍होंने पूरी शिद्दत से रोगियों की सेवा की और भारत के स्‍वतंत्रता आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। भारतीय इतिहास और दर्शन पर उनका बहुत महत्‍वपूर्ण लेखन है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की बेहतरी की प्रेरणाओं से संचालित है।

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