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Hindi News भारत राष्ट्रीय Sparrow Day: अब नहीं नहीं चेते तो वह होगी 'गूगल गौरैया'

Sparrow Day: अब नहीं नहीं चेते तो वह होगी 'गूगल गौरैया'

इंसान के बेहद करीब रहने वाली कई प्रजाति के पक्षी और चिड़िया आज हमारे बीच से गायब है। उसी में एक है 'स्पैरो' यानी नन्ही सी गौरैया। गौरैया हमारी प्रकृति और उसकी सहचरी है। गौरैया की यादें आज भी हमारे जेहन में ताजा हैं।

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गौरैया को खलता है अधिक तापमान:
बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का सफाया हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में पेड़ काटे जा रहे हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में बाग-बगीचे खत्म हो रहे हैं। इसका सीधा असर इन पर दिख रहा है। गांवों में अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं, जिस कारण मकानों में गौरैया को अपना घांेसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल रही है।

पहले गांवों में कच्चे मकान बनाए जाते थे। उसमें लकड़ी और दूसरी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता था। कच्चे मकान गौरैया के लिए प्राकृतिक वातावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध करते थे। लेकिन आधुनिक मकानों में यह सुविधा अब उपलब्ध नहीं होती है। यह पक्षी अधिक तापमान में नहीं रह सकता है।

शहरों में भी अब आधुनिक सोच के चलते जहां पार्को पर संकट खड़ा हो गया। वहीं गगन चुंबी ऊंची इमारतें और संचार क्रांति इनके लिए अभिशाप बन गई। शहर से लेकर गांवों तक मोबाइल टावर एवं उससे निकलते रेडिएशन से इनकी जिंदगी संकट में फंस गई है। देश में बढ़ते औद्योगिक विकास ने बड़ा सवाल खड़ा किया है।

फैक्ट्रियों से निकले केमिकल वाले जहरीले धुएं गौरैया की जिंदगी के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं। उद्योगों की स्थापना और पर्यावरण की रक्षा को लेकर संसद से सड़क तक चिंता जाहिर की जाती है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह दिखता नहीं है। कार्बन उगलते वाहनों को प्रदूषण मुक्त का प्रमाण-पत्र चस्पा कर दिया जाता है, लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है।

घास के बीज गौरैया को बेहद पसंद
गौरैया की पहचान क्या होती है। अक्सर यह सवाल आपके मन में उभरता होगा। दरअसल, नर गौरैया के गले के नीचे काला धब्बा होता है। वैसे तो इसके लिए सभी प्रकार की जलवायु अनुकूल होती है। लेकिन यह पहाड़ी इलाकों में नहीं दिखती है। ग्रामीण इलाकों में अधिक मिलती है। गौरैया घास के बीजों को अपने भोजन के रूप में अधिक पसंद करती है।

गौरैया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता का कारण है। इस पक्षी को बचाने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से कोई खास पहल नहीं दिखती है। दुनियाभर के पर्यावरणविद् इसकी घटती आबादी पर चिंता जाहिर कर चुके हैं।

रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग भी कारण
खेती-किसानी में रसायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग बेजुबान पक्षियों और गौरैया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। आहार भी जहरीले हो चले हैं। केमिलयुक्त रसायनों के अधाधुंध प्रयोग से कीड़े मकोड़े भी विलुप्त हो चले हैं, जिससे गौरैया को भोजन का भी संकट खड़ा हो गया है।

उर्वरकों के अधिक प्रयोग के कारण मिट्टी में पैदा होने वाले कीड़े-मकोड़े समाप्त हो चले हैं, जिससे गौरैयों को भोजन नहीं मिल पाता है। हमारे आसपास के हानिकारण कीटाणुओं को यह अपना भोजना बनाती थी, जिससे मानव स्वस्थ्य और वातावरण साफ-सुथरा रहता था। दूसरा बड़ा कारण मकर संक्रांति पर पतंग उत्सवों के दौरान काफी संख्या में हमारे पक्षियों की मौत हो जाती है।

पतंग की डोर से उड़ने के दौरान इसकी जद में आने से पक्षियों के पंख कट जाते हैं। हवाई मार्गो की जद में आने से भी इनकी मौत हो जाती है। दूसरी तरफ, बच्चों की ओर से चिड़ियों को रंग दिया जाता है, जिससे उनका पंख गीला हो जाता है और वह उड़ नहीं पाती। हिंसक पक्षी जैसे बाज वगैरह हमला कर उन्हें मौत की नींद सुला देते हैं। वहीं मनोरंजन के लिए गौरैया के पैरों में धागा बांध दिया जाता है। कभी-कभी धागा पेड़ों में उलझ जाता है, जिससे उनकी जान चली जाती है।

भारत से उठी गौरैया संरक्षण की आवाज
दुनियाभर में कई तरह के खास दिन हैं ठीक उसी तरह 20 मार्च का दिन भी गौरैया संरक्षण के लिए निर्धारित है। लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा की इसकी शुरुआत सबसे पहले भारत के महाराष्ट्र से हुई। गौरैया गिद्ध के बाद सबसे संकटग्रस्त पक्षी है।

दुनियाभर में प्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई. दिलावर नासिक से हैं। वह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े हैं। उन्होंने यह मुहिम वर्ष 2008 से शुरू किया। आज यह दुनिया के 50 से अधिक मुल्कों तक पहुंच गई है। गौरैया के संरक्षण के लिए सरकारों की तरफ से कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखती है। हालांकि उप्र में 20 मार्च को गौरैया संरक्षण दिवस के रूप में रखा गया है।

दिलावर के विचार में गौरैया संरक्षण के लिए लकड़ी के बुरादे से छोटे-छोटे घर बनाएं जाएं और उसमें खाने की भी सुविधा भी उपलब्ध हो। गौरैया के विलुप्त होने का कारण वे बदलती आबोहवा और केमिकल के बढ़ते उपयोग को मानते हैं। उनके विचार में मोर की मौत की खबर मीडिया की सुर्खियां बनती हैं, लेकिन गौरैया को कहीं भी जगह नहीं मिलती।

वह कहते हैं कि अमेरिका और अन्य विकसित देशों में पक्षियों का ब्यौरा रखा जाता है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। उन्होंने पक्षियों के संरक्षण के लिए कॉमन बर्ड मॉनिटरिंग ऑफ इंडिया के नाम से साइट बनाई है, जिस पर आप भी पक्षियों से संबंधी जानकारी और आंकड़ा दे सकते हैं।

कुछ सालों से उनकी संस्था गौरैया को संरिक्षत करने वालों को स्पैरो अवार्डस देती है। शहरों और ग्रामीण इलाकों में घोसलों के लिए सुरक्षित जगह बनानी होगी। उन्हें प्राकृतिक वातावरण देना होगा।

हम नहीं चेते तो वह होगी 'गूगल गौरैया'
समय रहते इन विलुप्त होती प्रजाति पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब गिद्धों की तरह गैरैया भी इतिहास बन जाएगी और यह सिर्फ गूगल और किताबों में ही दिखेगी। सिर्फ सरकार के भरोसे हम इंसानी दोस्त गौरैया को नहीं बचा सकते। इसके लिए हमें आने वाली पीढ़ी को बताना होगा की गौरैया या दूसरी विलुप्त होती पक्षियां मनवीय जीवन और पर्यावरण के लिए क्या खास अहमियत रखती हैं।

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