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Hindi News एजुकेशन परीक्षा BLOG: किसी के कहने पर नहीं बल्कि अपनी रूचि और क्षमता को ध्यान में रख करें विषय का चुनाव

BLOG: किसी के कहने पर नहीं बल्कि अपनी रूचि और क्षमता को ध्यान में रख करें विषय का चुनाव

पूरी किताब को बार-बार पढ़ने और पिछले साल के सवालों को हल करने के अभ्यास से प्रमुख सवालों का अंदाजा लग गया था कि किस तरह के सवाल पूछ जाएंगे। रोज़ाना लिखकर अभ्यास करने वाली रणनीति से काफी मदद मिली।

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साल 2001 में पहली बार यूपी बोर्ड की परीक्षा से सामना हुआ। परीक्षा के लिए अच्छी बात थी कि तैयारी पहले से हो रही थी। अंग्रेजी के नोट्स अच्छे से तैयार थे। तैयारी के दिनों में बाकी साथियों को मेरी तैयारी से जलन हो रही थी, ऐसे में एक छात्र ने मेरे नोट्स की कापी फाड़ दी। मैं उसकी जलन को पढ़ पा रहा था। इसलिए मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा कि उसे बुरा लगे। लेकिन भीतर ही भीतर कहीं न कहीं लग गया था कि प्रतिस्पर्धा के दिन शुरू हो गये। विज्ञान की किताबों को दोहराने के अलावा कांसेप्ट को समझने पर पूरा जोर था, लेकिन यूपी बोर्ड की परीक्षा में बग़ैर रटे तो काम नहीं चल सकता था।

6 घंटे का पेपर 3 घंटे में होता था

उस समय 9वीं और 10वीं की परीक्षा एक साथ होती थी। अंग्रेजी का केवल एक ही पेपर हो था, जिसमें गद्य, पद्य, नाटक सबकुछ शामिल होता था। कुल 6 घंटे का पेपर तीन घंटे में देना होता था। तो इस पेपर में लोगों की चिंता चरम पर होती थी। परीक्षा के दिनों में सुबह की पाली में परीक्षा होती थी। इसलिए आराम से पूरा कोर्स पढ़ते, दोहराते और जल्दी सो जाते थे ताकि समय से उठ सकें। उस समय सुबह उठकर पढ़ने की आदत थी, इसलिए काम चल जाता था।

मगर मेरी कोशिश होती थी कि रात में ही सारी चीज़ें जैसे प्रवेश पत्र वग़ैरह व्यवस्थित कर लिया जाये। उन दिनों में साक्षात्कार पढ़ने का चस्का था। तो अलग-अलग लोगों को पढ़ते रहते थे कि लोग सिविल परीक्षा की तैयारी कैसे करते हैं और साक्षात्कार के दौरान उनको किस तरह के तनाव से गुजरना होता है, एक सर हमारे इलाहाबाद में रहकर तैयारी कर रहे थे। उनको देखकर हम लोग प्रेरित होते थे कि अगर वे भरी दोपहरी में बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ सकते हैं तो फिर हम तो छोटी-मोटी बोर्ड परीक्षा ही दे रहे हैं। इसमें पास होना कौन सी बड़ी बात है।

परीक्षा में सफलता के लिए तैयारी है जरूरी

बोर्ड परीक्षाओं के पहले ही सारे विषय के नोट्स बनाने और दोहराने के साथ तैयारी शुरू हो गई थी। अंग्रेजी की कोचिंग में समय-समय पर टेस्ट होते थे, इससे मदद मिल जाती थी। विभिन्न गाइ़ड्स को मिलाकर अपने नोट्स तैयार किये ताकि जो सवाल अपनी भाषा और समझ के हिसाब से सबसे सटीक हो, उसे ही अंग्रेजी विषय के नोट्स का हिस्सा बनाया जाये। पूरी किताब को बार-बार पढ़ने और पिछले साल के सवालों को हल करने के अभ्यास से प्रमुख सवालों का अंदाजा लग गया था कि किस तरह के सवाल पूछ जाएंगे। रोज़ाना लिखकर अभ्यास करने वाली रणनीति से काफी मदद मिली। परीक्षा का तनाव हावी नहीं होने पाया। विज्ञान विषय के लिए किताब से पढ़ने और परिभाषाओं को याद करने, महत्वपूर्ण चित्रों को बनाने व उससे जुड़ी चीज़ों को चित्रों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया गया।

हर विषय की अलग रणनीति बनाकर की तैयारी

निबंध वाले हिस्से के लिए प्वाइंट्स में लिखने के साथ-साथ जरूरी कथन पहले से याद कर लिये थे। सुलेख का अभ्यास काफी उपयोगी रहा, क्योंकि बोर्ड परीक्षाओं में हमारा प्रतिनिधित्व हमारी लिखावट ही करती है, ऐसे में जरूरी है कि हम तेज़ी के साथ और साफ़-सुथरा लिखने का अभ्यास करें। गणित के लिए शुरू से जो पाठ आसान लगे, जिसके कांसेप्ट अच्छे से समझ में आ रहे थे, उसको दोहराकर मजबूत किया। जो हिस्सा समझ में नहीं आ रहा था, या जिसको समझने के लिए बहुत ज्यादा समय जाता, उसको सरसरी निगाह से देख लिया और उसके सवालों को लगाने का अभ्यास कर लिया ताकि उस हिस्से से सवाल पूछे जाने पर कोई झिझक न हो।

हिंदी में सबसे ज्यादा परेशानी लेखकों का जन्मदिन और मृत्यु की तारीख वग़ैरह याद करने में हुई, बाकी सामग्री को लेकर किसी तरह की परेशानी नहीं हुई। अंग्रेजी विषय को लेकर अपठित गद्यांश वाले हिस्से में संदर्भ, व्याख्या, नोट्स जैसे तरीके अपनाये, जो ग्रेजुएशन स्तर के छात्र करते हैं। ऐसे प्रयोगों का भी लाभ मिला। जिस विषय को लेकर सबसे कम तैयारी थी, और जिसकी वजह से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की चाहत बस चाहत बनकर रह गई, वह गंभीर पढ़ाई वाला विषय नहीं था। वह अभिरुचि और नव-प्रयोग वाला विषय कला था। दसवीं के परिणाम जाहिर होने के बाद एक सबक मिला कि हर किसी को अपनी पढ़ाई के विषय का चुनाव किसी के कहने पर नहीं, अपनी रूचि और क्षमता को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए। अगर कला की जगह संस्कृत विषय का चुनाव किया गया होता तो प्रथम श्रेणी वाले नंबर जुटाने वाली गणित में भी पास कर जाते।

उच्च-शिक्षा की चेक पोस्ट जैसी 10वीं और 12वीं की परीक्षा

साल 2001 और 2003 के जमाने में बोर्ड की परीक्षा देने वाले छात्र-छात्राओं पर बुजुर्गों का काफी दबदबा होता था। परीक्षा में पास होना प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी। उन दिनों का सबसे बड़ा डर था कि हमारे गाँव में पहली बार में कोई बोर्ड की परीक्षा में पास नहीं होता था। कोई दूसरी बार में 10वीं पास होने वालों में था, तो कोई तीसरी बार बोर्ड की परीक्षा दे रहा था। तो कुछ एक-दो बार फेल होने के बाद दिल्ली-मुंबई चले जाते थे, नौकरी या किसी अन्य काम की तलाश में। उन दिनों में 10वीं कक्षा और 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाएं एक तरह से उच्च शिक्षा की राह में पड़ने वाले चेकिंग पोस्ट जैसे थे, जहाँ से उन्हीं लोगों को आगे जाने का मौका मिलता था, जो इन दो बाधाओं को पार कर जाते थे।

केवल नकल के भरोसे बैठने वाले छात्र कम थे

अगर एक मोड़ पर कोई नकल करके पास हो भी जाए, तो फिर 12वीं की परीक्षा में पास करना मुश्किल हो जाता था। राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के कार्यकाल में नकल नहीं होगी, लोग यह बात जानते थे। इसलिए तैयारी करते थे। केवल नकल के भरोसे बैठे रहने वाले छात्रों की तादात उस समय कम थी। कह सकते हैं कि उस समय के लोगों में जीवट था कि वे परीक्षा के तनाव और डर का सामना साहस के साथ करते थे। आज जैसी स्थिति नहीं थी कि कोई सरकार नकल को लेकर सख़्त हुई थी, 10 लाख से ज्यादा छात्रों ने परीक्षा ही छोड़ थी।

हमारे समय में सेकेंड डिवीजन पास होने वाले छात्र-छात्रा की भी वैल्यू थी। मगर अब तो 60 प्रतिशत से ऊपर नंबर पाने वाले को भी लगता है कि फलां के तो 80 प्रतिशत हैं मेरे कम हैं। बोर्ड परीक्षा में मिठाई बँटती थी, पास होने छात्र-छात्राओं की वाहवाही होती थी। फेल होने वाले छात्रों को शर्मसार होना पड़ता था। क्योंकि बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि देखो! हम तो पहले ही कह रहे थे कि परीक्षा में पास नहीं होंगे। पढ़ाई से ज्यादा तो इसका मन खेल में लगता था। या फिर यह तो लड़कों की गोल बनाकर सिनेमा देखता था या फिर घूमता था। समाज की नज़र हमारे ऊपर होती थी कि अरे! तुम्हारा बोर्ड का इम्तिहान है इस बार और तुम क्रिकेट खेल रहे हो या कंचे खेल रहे हो। लोग वहाँ से घर भेज देते थे। या फिर पढ़ने के लिए कहते थे।

उन दिनों की परीक्षाओं को याद करके लगता है कि सबसे बड़ा डर यही होता था कि हर परीक्षा में लगता था कि बोर्ड की परीक्षा के आखिरी परिणाम आज ही तय हो जाएंगे। अगर एक विषय में फेल हो गये तो सारी पढ़ाई और साल खराब हो जायेगा। पूरक परीक्षा जैसी कोई चीज़ नहीं थी। कॉपी दोबारा चेक करवाना भी आसान काम नहीं था। ऐसे में हर छात्र-छात्रा को बोर्ड परीक्षा के तनाव, दबाव और सामाजिक हौव्वे का सामना करना पड़ता था। डर इस कदर गहरा होता था कि लोग 10वीं के रोल नंबर नहीं बताते थे कि अगर 10वीं में फेल हो गये तो लोग क्या कहेंगे। ऐसा करना भी बड़ी दिलेरी वाली बात मानी जाती थी। मगर इन परीक्षाओं ने आगे की पढ़ाई के लिए तैयारी करने में काफी मदद की।

(लेखक वृजेश सिंह STIR Education संस्था में बतौर प्रोग्राम मैनेजर लखनऊ में कार्यरत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में पिछले 6 सालों से काम कर रहे हैं। 

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