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जो बनाये पिच ऐसी तो टेस्ट कहां से होय

नई दिल्ली: पिच अपनी टीम की सहूलियत अनुसार बनाना क्रिकेट खेलने वाले हर देश का अधिकार है और इससे किसी को कोई एतराज़ भी नहीं होना चाहिए। एतराज़ हो भी क्यों, हर टीम कम से

जो बनाये पिच ऐसी तो...- India TV Hindi जो बनाये पिच ऐसी तो टेस्ट कहां से होय

नई दिल्ली: पिच अपनी टीम की सहूलियत अनुसार बनाना क्रिकेट खेलने वाले हर देश का अधिकार है और इससे किसी को कोई एतराज़ भी नहीं होना चाहिए। एतराज़ हो भी क्यों, हर टीम कम से कम अपने घर में तो जीतना चाहेगी ही।
 
आज क्रिकेट जगत की सबसे बड़ी चिंता ये है कि कैसे क्रिकेट के मूल स्वरुप यानी टेस्ट मैच को विलुप्त होने से बचाया जाय। टेस्ट मैच के दौरान ख़ाली स्टेडियम से घबराकर ICC ने एक पहल शुरु कर दी है जिसके तहत टेस्ट मैच अब गुलाबी बॉल के साथ रात को खेले जाएंगे बल्कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के बीच आज से एडीलेड में गुलाबी टेस्ट मैच शुरु भी हो गया है।
 
क्या है ख़ूबी टेस्ट की और कैसे ये दम तोड़ रहा है:  

जैसा कि नाम से ज़ाहिर है एक क्रिकेटर की असली परीक्षा टेस्ट मैच में ही होती। टेस्ट मैच ही वो कसौटी है जिस पर एक क्रिकेटर को ख़रा उतरना होता है और तभी वो इतिहास में जगह पाने का हक़दार बनता है। डॉन ब्रेडमैन, गैरी सोबर्स, सुनील गावस्कर, स्टीव वॉ, ग्राहम गूच, ब्रायन लारा, मैल्कम मार्शल, कर्टली ऐम्ब्रोस जैसे कई ऐसे खिलाड़ियों की मिसाल हमारे सामने है जिनकी बेहतरीन यादें टेस्ट क्रिकेट के गलियारे से ही होते हुए हमारे ज़हन में उतरती हैं और घर कर जाती हैं।
 
अब सवाल ये है कि ऐसी क्या बात है टेस्ट की जिसका असर हमारे दिल-ओ-दिमाग़ पर बरसों तारी रहता है? वनडे या टी-20 में हम जहां बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी (हमदर्दी के साथ) क्रिकेट का विद्रूप रुप (distorted) देखते हैं वहीं टेस्ट में ये खेल निखार के साथ दिखाई देता है और खेला भी जाता है क्योंकि आपके खेल में निखार ही टेस्ट क्रिकेट की दहलीज़ पर क़दम रखने की पहली शर्त होती है।
 
ऐसी पिच से किसका होगा भला?

ये लेख लिखने लिखने की एक वजह तो टेस्ट क्रिकेट की गिरती लोकप्रियता है और दूसरी वजह है साउथ अफ़्रीका के साथ जारी टेस्ट सीरीज़। टी-20 और वनडे में हार के बाद ऐसा लगा मानों कप्तान और टीम मैनेजमेंट को अपने खिलाड़ियों की क़ाबिलियत पर भरोसा ही नहीं रहा और बनानी शुरु कर दी ऐसी पिच जो दो ओवर के बाद धूल उड़ाने लगी। मोहाली जैसे देश के सबसे तेज़ विकेट को भी ऐसा बनाया कि मैच तीन दिन में ही ख़त्म हो गया। बेंगलुरु में भी यही हुआ होता अगर बारिश ने मैदान को भिगोया न होता।
 
अगर स्पिन हमारी ताक़त है तो हमें ज़रुर टर्निंग ट्रैक बनाने चाहिये, ऐसे ट्रेक जो तीसरे दिन धूमने शुरु हों न कि ऐसे जिस पर खेल शुरु होने के दस मिनट बाद ही बॉल एक बेलग़ाम फ़िरकनी की तरह घूमने लगे। 1996 में डर्बन(साउथ अफ़्रीका) और 2002 में न्यूज़ीलैंड के विकेट पर हमने बहुत शोर मचाया था जिन पर ज़बरदस्त उछाल था और स्विंग था। इस लिहाज़ से देखें तो हमने भी मौजूदा टेस्ट सीरीज़ में रैंक टर्नर विकेट बनाकर अपने ही विरोध को कमज़ोर नहीं कर दिया है?
 
इस तरह के विकेट बनाकर हम क्रिकेट जगत को क्या संदेश दे रहे हैं? कि हमें हमारी क्षमताओं पर भरोसा नहीं है..? कि हम हमारी मर्ज़ी के अनुरुप तराशी पिच पर ही सेर बन सकते हैं...?  कि विराट कोहली, रहाणे, ईशांत शर्मा और अश्विन अपनी प्रतिभा से हमें टेस्ट मैच नहीं जितवा सकते...? अगर ऐसा है तो यक़ीनन हमारे देश के टेस्ट क्रिकेट का भविष्य अंधकारमय है।
 
एक मामूली सा सिद्धांत है, अच्छी पिच अच्छे क्रिकेटर्स पैदा करती है और फिर ज़ाहिर है ख़राब पिच भी जो पौध पैदा करेगी वो अच्छी तो बिल्कुल नहीं हो सकती। अगर हम दूर से आ रहे टेस्ट पिच की आवाज को अनसुना कर बस दो कदम आगे देखकर सफलता हासिल करके ख़ुश हो जाते हैं और सोचते हैं कि आने वाले सालों में हम फिर सुनील गावस्कर, कपिल देव या सचिन तेंदुलकर देखेंगे तो यक़ीन मानिये हम ख़ुशफ़हमी में जी रहे हैं।   
 

 

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