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कभी गैराज में काम करते थे गुलजार साहब, ऐसे बदली किस्मत, जानें दिलचस्प किस्सा

पंजाब के दीना जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में जन्में गुलजार का असल नाम सम्पूरन सिंह कालरा है। आजादी के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया था। गुलजार के बड़े भाई बॉम्बे में काम करते थे। इसके बाद वह भी उनके पास बॉम्बे चले गए। वहां वो गैराज में डेंट लगी गाड़ियों को पेंट करने का काम करते थे।

GULZAR- India TV Hindi Image Source : FILE PHOTO गीतकार गुलजार

Highlights

  • गुलजार ने न केवल हिंदी बल्कि अन्य भाषा भी सीखी ताकि किताबों का ट्रांसलेशन न पढ़ना पढ़ें।
  • गुलजार का असली नाम सम्पूरन सिंह कालरा है।

दिग्गज गीतकार गुलजार साहब आज भले किसी परिचय के मोहताज नहीं है लेकिन कभी उनका समय भी खराब था। उन्होंने मुंबई तब बॉम्बे में गुजारा करने के लिए काफी संघर्ष किया था। सपनों के शहर में गुजर बसर करने के लिए गुलजार  गैराज में डेंट लगी गाड़ियों को पेंट करते थे। इसी दौरान उन्होंने बॉम्बे में एक प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबरशिप ले ली थी। यहां उनकी मुलाकात फिल्मों से जुड़े कई गीतकार से हुई। गैराज से समय मिलता तो वो अपना पूरा ध्यान कुछ न कुछ पढ़ने-लिखने में बिता देते थे। गुलजार ने न केवल हिंदी बल्कि अन्य भाषा भी सीखी ताकि किताबों का ट्रांसलेशन न पढ़ना पढ़ें।

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ऐसे पहुंचे मुंबई

पंजाब के दीना जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में जन्में गुलजार का असल नाम सम्पूरन सिंह कालरा है। आजादी के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया था। गुलजार के बड़े भाई बॉम्बे में काम करते थे। इसके बाद वह भी उनके पास बॉम्बे चले गए। वहां वो गैराज में डेंट लगी गाड़ियों को पेंट करने का काम करते थे।

फिल्मों से दूर रहना चाहते थे गुलजार साहब

गुलजार साहित्य से जुड़े रहना चाहते थे। उन्हें फिल्मों में खासा दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए वह इससे दूरी बनाए रखना चाहते थे। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। गुलजार साहब ने गाने लिखने के साथ ही कई फिल्मों को भी डायरेक्ट किया है।  

इंटरव्यू के दौरान शेयर किया पहला गाने लिखने का दिलचस्प किस्सा

गुलजार ने 'द अनुपम खेर शो' पर इंटरव्यू के दौरान अपने पहले गाने के बारे में बताया। साल1960 की है जब सबसे ज्यादा अवॉर्ड जीतने वाले फिल्मकार बिमल रॉय फिल्म बंदिनी बना रहे थे। इस फिल्म के लिए बिमल रॉय ने सचिन देव बर्मन को म्यूजिक डायरेक्टर के तौर पर चुना था। सचिव देव बर्मन हमेशा शैलेन्द्र से गाना लिखवाते थे, लेकिन उस दौरान दोनों में बातचीत बंद थी। इसिलए शैलेन्द्र ने फिल्म के गीत लिखने से इंकार कर दिया।

उस समय बिमल रॉय के एक असिस्टेंट थे देबू सेन। वह गुलजार साहब के दोस्त भी थे। देबू सेन को पता था कि गुलजार बहुत अच्छा लिखते हैं, इसलिए उन्होंने गुलजार साहब को बिमल रॉय से मिलने की बात कही। गुलजार ने देबू सेन को मना कर दिया कि वो बिमल रॉय से नहीं मिलेंगे।

देबू सेन ने ये बात शैलेंद्र को बताई तो उन्होंने गुलजार साहब को डांट लगाते हुए कहा कि ‘लोग बिमल दा से मिलने का घंटो इंतजार करते हैं और तुम्हें उनसे मिलने नहीं जाना है। तुम्हारे अलावा क्या कोई और पढ़ा लिखा नहीं है यहां, एक तुम ही सब जानते हो।’

जब शैलेंद्र से डांट पड़ी तो देबू सेन के साथ गुलजार साहब, बिमल दा से मिलने पहुंचे। गुलजार उस समय से ही सफेद कुर्ता पायजामा पहनने लगे थे। गुलजार को देखकर बिमल दा ने देबू सेन से बंगला में कहा कि ‘ए देबू, ए भद्रलोके की कोरे जान्बे के बेश्नों कबिता टा की।’

इतना सुनते ही देबू सेन ने कहा कि ‘दादा ये बंगला जानता है, लिखता, पढ़ता और बोलता भी है।’ ये बात सुनकर बिमल दा का चेहरा लाल हो गया। दरअसल बिमल दा ने देबू सेन से गुलजार के बारे में कहा था कि ‘ये आदमी जानता है कि वैष्णव कविता क्या होती है।’

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इसके बाद गुलजार साहब, बिमल दा के साथ एस डी बर्मन साहब के स्टूडियो पहुंचे। वहां पर चर्चा हो रही थी कि फिल्म बंदिनी की लीड कैरेक्टर कल्याणी अपने प्रेमी से मिलने जाने वाली है और उसके इंतजार में गाना गा रही है। उसी सिचुएशन पर गुलजार को गाना लिखना था। तब गुलजार साहब ने लिखा- ‘मोरा गोरा अंग लइले, मोहे श्याम रंग दईदे।’ गुलजार साहब ने इस फिल्म के लिए केवल एक गाना लिखा था जो सभी को बहुत पसंद आया था। 

इसके बाद बिमल रॉय ने गुलजार साहब को अपने पास बुला लिया और कहा, 'अब गैराज में काम करने की जरूरत नहीं है। वो दूसरी फिल्म बना रहे हैं। उस फिल्म के लिए बिमल दा ने गुलजार साहब को असिस्टेंट के तौर पर रख लिया।' इस तरह से गुलजार साहब को अपने करियर का पहला गाना लिखने का मौका मिला था।

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