Thursday, May 16, 2024
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पाकिस्तान - जैसा मैंने देखा

दुश्मन देश? ये पाकिस्तान है। शाम ने अपनी छत डाल दी है। रौशनी धीरे-धीरे मद्धम हो रही है। मेरा एक पैर बड़े सींखचों वाले लोहे के गेट के इस पार है। दूसरा उस पार। मैं

Abhishek Upadhyay Abhishek Upadhyay
Updated on: December 26, 2015 20:32 IST
jinnah super market in pakistan- India TV Hindi
jinnah super market in pakistan

दुश्मन देश? ये पाकिस्तान है। शाम ने अपनी छत डाल दी है। रौशनी धीरे-धीरे मद्धम हो रही है। मेरा एक पैर बड़े सींखचों वाले लोहे के गेट के इस पार है। दूसरा उस पार। मैं एक ही वक़्त में, एक ही साथ, दो मुल्कों की ज़मीन पर खड़ा हूँ। वाघा बॉर्डर इन दो कदमों के बीच फंस गया है कहीं। आज महसूस कर रहा हूँ कि दो कदमों का फ़ासला भी कितना लम्बा होता है। नक्शे बदल जाते हैं और शायद तक़दीर भी। सामने क़ायदे आज़म की तस्वीर है, यूँ फ़ोटो फ्रेम में जड़ी हुई, मानो इतिहास की ईंटों ने तवारीख़ मुंजमिद कर दी हो। ठीक ऊपर लहराता हुआ झंडा। चाँद-तारे का निशान। कत्थई-लाल सी ईंटों पर। सुनहरे पीले अक्षरों में लिखा। पाकिस्तान। मेरी आँखें चकरी की तरह घूम रही हैं। एक-एक मंज़र की रील-सी उतारता जा रहा हूँ। पाकिस्तानी रेंजर्स अगल-बगल घूम रहे हैं। इमिग्रेशन पार कर लिया है। लाहौर सामने है। ठीक मेरी नज़र के सामने। झुकी हुई कमर लिए। बीते वक़्त की लाठी पर टिका हुआ। जी में आया, पूछूँ- 'कैसे मिजाज़ हैं हुज़ूर। अपने देव साहब वाला गवर्नमेंट कॉलेज ठीक चल रहा है न! और वो मंटो की कब्र। बहुत किस्मत वाले हो जनाब। तुम्हारी ही ज़मीन पर बनी है वो कब्र, जहां सोया हुआ एक शख़्स अब भी यही सोचता होगा कि बड़ा अफ़साना निगार कौन है? वो? या फिर ख़ुदा?। मुझे लाहौर के चेहरे की झुर्रियों में एक तस्वीर सी उभरती नज़र आती है। पहचानता-सा हूँ। कौन है ये? मंटो!!!

'सहाफी (पत्रकार) हो क्या?' एक कड़कती सी आवाज़ कानों में गिरती है। एकदम से ज़मीन पर लौटता हूँ मैँ। 'जी, सहाफी हूँ।' जवाब सुनते ही अगला सवाल-'हिंदुस्तान से आए हो।' मैं एकदम स्वचालित मोड में हूँ। 'जी, जनाब। हिंदुस्तान से ही।' मुझे बुरी तरह घूरती वे आँखें आगे की ओर निकल जाती हैं। पीछे हरे-सफेद रंग में डूबा चांद-तारे के निशान वाला एक गेट बंद हो जाता है। अब कोई अवरोध नही। कोई और रोक नहीं। लाहौर का टैक्सी स्टैंड आ चुका है। एक लम्बी चिकचिक। ड्राइवरों के दो गुटों में लगभग मार-पीट की नौबत। मैं अब सहाफी से 'सवारी' में तब्दील हो चुका हूँ। लाहौर से इस्लामाबाद की मलाईदार सवारी। आखिरकार बात बन गई। और अब टोयोटा की XLI लाहौर की सड़कों पर दौड़ रही है। बादामी बाग़। आज़ादी चौक। मैं इलाकों के नाम रट रहा हूँ। पुराने ज़माने के पक्की ईंटों वाले मकान। प्लास्टर का कहीं निशान नही। उर्दू में लिखे बिल बोर्ड। हरे रंगों में डूबे दुकानों के शटर। संकरी। बेतरतीब सी गलियाँ। बांस के खपच्चों पर लटके हुए पाकिस्तानी झंडे। उन पर चढ़ी हुई मैल की चादर। एक जगह खड़े-खड़े थक से चुके PSO (Pakistan State Oil) के पेट्रोल पंप। धूल। मिट्टी। गर्द में नहाया शहर। कानों में पड़ती अजान की आवाज़। मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो चला है।

अचानक कार एक राइट टर्न लेती है और फिर तस्वीर ही बदल जाती है। कार अब M2 पर दौड़ रही है। ये मोटर वे है। लाहौर से सीधे इस्लामाबाद को जोड़ता 375 किलोमीटर का पाक नेशनल हाइवे। एशिया के सबसे महंगे हाइवे में एक। नवाज़ शरीफ की पहली वज़ारत में तसव्वुर किया गया। शानदार। ज़बरदस्त। कार ने गज़ब की स्पीड पकड़ ली है। मैंने अपनी साइड का शीशा उतारा। ऊपर की ओर झांककर देखा। कोई हेलीकॉप्टर तो नही उड़ रहा? ये कार जिसका पीछा कर रही हो!

'साजन मेरा उस पार है। मिलने को दिल बेकरार है।' ड्राइवर ने पेन ड्राइव लगाकर आवाज़ तेज़ कर दी। इस पाकिस्तानी ड्राइवर की पेन ड्राइव के सारे गाने हिन्दुस्तानी थे। गाड़ी चलाते हुए वो झूमता जा रहा था। 'जिनकी चाहत में अंखिया तरसी हैं/जिनसे मिलने को बरसों बरसी हैं।' पीछे की सीट पर बैठे-बैठे ही मैने सामने लगे मिरर में उसकी आँखें देखीं। कोई तरस थी क्या? बिछोह का कोई अनजाना सा दर्द? या कुछ ज़्यादा ही सोचने लगा हूँ मैं? न जाने कब आँख लग गयी। लाहौर बीत चुका है। असगर वज़ाहत की आवाज़ मेरी नींद में दाख़िल हो चुकी है। पूछ रही है- 'जिन लाहौर नही वेख्या?' अरे, लाहौर देखे बगैर ही निकल गए? अब इसे क्या बताऊँ? कैसे समझाऊं? इन तीन दिनों के वीज़े में कहां-कहां जाऊं?

आँख खुली है अब। सामने एक बोर्ड दीख रहा है। ऊपर लिखा है इस्लामाबाद। नीचे रावलपिंडी। ड्राइवर परेशान है। अगला कट इस्लामाबाद को जाएगा। पर अगर वो मिस हो गया तो...? फिर तो सीधे पेशावर निकल जाएंगे। बार-बार गुज़ारिश कर रहा है-' जनाब! बोर्ड पढ़ते रहिएगा।' अगला लेफ्ट टर्न रावलपिंडी/इस्लामाबाद जा रहा है। हम उसमें उतर गए।

इस्लामाबाद का ब्लू एरिया। हम यहीं ठहरे हैं। मेरा साथी कैमरामैन प्रमोद सकलानी होटल के काउंटर पर दाखिले की औपचारिकतायें पूरी कर रहा है। और मैं....? थोड़ी दूरी पर खड़ा होकर रिसेप्शन काउंटर के ठीक अपोजिट की कुर्सी पर बैठे एक शख्स को नज़र बचाकर देखे जा रहा हूँ। आसमानी रंग का पठानी सूट। कंधे से झूलती काली सदरी। ज़मीन पर उगी हरी दूब सी नरम दाढ़ी। ये शख्स होटल के एक सीनियर स्टाफ़ से हमारे ही बारे में बातें कर रहा है। कुछ आवाज़ें मेरे कानो में गिरती हैं। पहली बार ISI के किसी नुमाइंदे को सामने से देखा है।

pakistani food is really tasty
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रात बीत चुकी है। सुबह का वक़्त। धुंध की पहली परत छंटने के साथ ही मैं इस्लामाबाद की आबपारा मार्किट में हूँ। गरम-गरम पूड़ी। हलवा। नहारी। 'हिंदुस्तान से आए हैं जनाब?' मेरे हाथों में इंडिया टीवी का माइक देखकर उस दुकानदार ने पूछ ही लिया। 'जी, बस नसीब में लिखा था, आपसे मिलना।' इस छोटे से जवाब ने उसके होठों पर मुस्कुराहट बिखेर दी। 'जनाब, आइये पहले कुछ खा लीजिए। आप हमारे मेहमान हैं।' मैं हैरान हूँ। किसकी मेहमानवाज़ी क़ुबूल करूं? एक साथ तीन दुकान वाले मुझे अपनी ओर खींच रहे हैं। इनके लिए मैं 'कस्टमर' नही, मेहमान हूँ। कैमरा ऑन है। सवाल पता नहीं क्या पूछता हूँ। जवाब मिलता है - 'जनाब, आप पहले ये बताएं कि आप हमारे मुल्क के साथ क्रिकेट क्यूँ नही खेलते? बात फैलने लगी है। दहशतगर्दी और दाउद से लेकर रॉ और क्रिकेट तक।' मुझे कोई डर नही महसूस हो रहा। ख़ौफ़ का कोई निशान नहीं। जो भी मिल रहा है। घुल-मिल सा जा रहा है। दुश्मनी कहां है? तवे पर सिक रहे गर्म पराठे की महक मेरी नाक में घुसती जा रही है। 'हलवा तो खाते जाएँ जनाब।' बहुत तीखापन सुन रखा है, यहां के बारे में। बड़ी कड़वाहट सुनी है। पर ये हलवा........वाकई बहुत मीठा है।

'सही है। सही है।' ये इस्लामाबाद की क्राउन कैब सर्विस का हमारा ड्राइवर है। अलादिता। ये उसका तकिया कलाम है, 'सही है।' हर बात की शुरुआत में, 'सही है।' एक बार इससे बातें करते हुए मेरे मुंह से निकलता है, 'यार कितना बड़ा गधा हूँ मैं, डायरी होटल में ही भूल आया।' तुरन्त ही इसके मुंह से निकलता है-'सही है। सही है।' मैंने एक उड़ती नज़र उसके चेहरे पर डालता हूँ और फिर सामने लटके शीशे में अपना चेहरा देखता हूँ। भीतर से कोई आवाज़ आती है। 'सही तो है बे। ठीक कह रहा है ये। यही हो तुम। सही है। सही है।' मेरी इस्लामाबाद की पूरी रिपोर्टिंग इसी अजनबी ड्राइवर के सहारे हो रही है। मैं कहता हूँ, किसी मदरसे जाना है। ये ले जाता है। फिर कहता हूँ। क्रिकेट खेलते लड़के चाहिए। ये ले जाता है। क्यूँ? क्या इसके भी पैसे दिए हैं मैंने? क्या किसी ने कोई सिफारिश की है मेरी? कोई जवाब नहीं मिलता मुझे। बस एक दूर तक पीछा करती आवाज़ महसूस होती है -' सही है। सही है।'

कैसा शहर है ये। जो भी मिलता है। हमसाया सा हो जाता है। ये इस्लामाबाद क्लब ग्राउंड में क्रिकेट खेल रहा अब्दुल मेरे आगे अड़ क्यूँ गया है? 'ऐसे नही चलेगा। आप मेहमान हैं। पहले चलिए हमारी चाय पीजिए। ये इंटरव्यू-विंटरव्यू होता रहेगा।' कैसे समझाऊं इसे? क्या ये न्यूज़ चैनलों की असाइनमेंट डेस्क को नही जानता है? क्या इसे उनकी 'डेडलाइन' का अंदाज़ा है? क्या ये 'असाइनमेंट डेस्क' से बिल्कुल ख़ौफ़ज़दा नही है? 'अरे जनाब, आपकी असाइनमेंट डेस्क की ऐसी की तैसी। चलिए पहले हमारे साथ चाय पीजिए।' ये कौन बोल रहा है? अब्दुल तो चुप है। फिर कौन है ये? अपने आप से कितनी बातें करने लगा हूँ मैं!

pakistani are very good host, they will not let you go without having tea
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ये इस्लामाबाद के F74 इलाके के जामिया कासमिया मदरसे के तालिब और मौलाना मुझे घेरकर क्यूँ खड़े हो गए हैं? स्टील की छोटी सी केटली सामने है। इसे 'चेनक' कहते हैं यहां। चेनक की गरमा गरम चाय। मैं पाकिस्तान के मदरसों पर स्टोरी करने यहां आया हूँ। मगर यहां भी.......। चेनक से गरमागरम चाय कप में गिर रेही है। 'अरे, ऐसे नही चलेगा। एक चाय और लें आप।' कोई सिलसिला है क्या? मेहमाननवाज़ी के सिरे जुड़ते हैं क्या? एक कोने से दूसरे कोने तक। मौलाना अब्दुल करीम आ चुके हैं। मदरसे के हाफ़िज़ वही हैं। स्टोरी पूरी कर ली है। रुखसती का वक़्त है। मगर वे हाथ पकड़ लेते हैं - 'आज न जाएँ आप। आज यहीं रुकें। हमारे पास। हमें भी मौका दें, मेहमान नवाज़ी का।' कहां हैं चाचा जवाहरलाल नेहरू? कहां हैं क़ायदे आज़म मोहम्मद अली ज़िन्ना? राज़ करने के लिए मुल्क बांट दिया! जाने किससे बड़बड़ा रहा था मैं? कोई सुन भी रहा है मेरी

इस्लामाबाद का सेंटोरिअस मॉल। फैसल बैंक। सितारा बाज़ार। F6 मरकज। जिन्ना सुपर मार्केट। सब के सब खींच रहे हैं मुझे। कोई पुरानी पहचान लगती है। कभी पहले भी आया हूँ क्या? याद नही पड़ता। ये रात भी बीत गयी है। आज वीजे का आख़िरी दिन है। 3.30 बजे दोपहर को वाघा बॉर्डर बंद हो जाता है। उससे पहले ही हिंदुस्तान में दाखिल होना है। कार एक बार फिर से मोटर वे पर सरपट भाग रही है। इस्लामाबाद छूट गया है। लाहौर छूट रहा है। वाघा सामने है। घड़ी 3 बजकर 20 मिनट बजा रही है। और मैं बॉर्डर पर खड़ा ठिठक गया हूँ। पीछे मुड़कर देख रहा हूँ। गेट पर खड़ा पाकिस्तान रेंजर का जवान एकटक मुझे देख रहा है। गेट के उस पार से आवाज़ आ रही है-' जल्दी आइये इधर।' बीएसएफ का एक जवान जल्दी इधर आने के इशारे कर रहा है। गेट के पार बस इंतज़ार में खड़ी है। मैं 'दुश्मन देश' की सरहद छोड़ आया हूँ। मैं दुश्मनी की सारी गिरहें (गांठें) खोल आया हूँ।

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