Monday, April 29, 2024
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1948 ओलंपिक में जब आजाद भारत ने पहली बार विश्व हॉकी के सीने पर दागा स्वर्णिम गोल

नवजात भारत ने अपने ‘पूर्व शासक’ ब्रिटेन को वेम्बले स्टेडियम में मौजूद 25000 दर्शकों के सामने 4-0 से हराकर पीला तमगा जीता जिससे विभाजन से मिले जख्मों पर भी मरहम लगा।   

Bhasha Reported by: Bhasha
Published on: July 02, 2021 12:00 IST
In 1948 Olympics, when independent India scored the golden goal on the chest of world hockey for the- India TV Hindi
Image Source : OLYMPICS.COM In 1948 Olympics, when independent India scored the golden goal on the chest of world hockey for the first time

नई दिल्ली। यूं तो भारत पिछले तीन ओलंपिक में भी हॉकी का स्वर्ण जीत चुका था लेकिन 1948 के लंदन ओलंपिक खास थे क्योंकि पहली बार एक आजाद देश के रूप में तिरंगे तले खेल रही भारतीय हॉकी टीम ने पहली बार अपनी बादशाहत साबित की और इन्हीं खेलों से एक नये सितारे बलबीर सिंह सीनियर का उदय हुआ जो कालांतर में दुनिया के 16 महानतम ओलंपियनों में से एक चुने गए। नवजात भारत ने अपने ‘पूर्व शासक’ ब्रिटेन को वेम्बले स्टेडियम में मौजूद 25000 दर्शकों के सामने 4-0 से हराकर पीला तमगा जीता जिससे विभाजन से मिले जख्मों पर भी मरहम लगा। 

15 अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ और 12 अगस्त 1948 को अंग्रेजों की सरजमीं पर खेलों के सबसे बड़े महासमर में उन्हें ही हराकर खिताब अपने नाम किया। यह एक नवजात राष्ट्र के अदम्य साहस, जिजीविषा और जुझारूपन की बानगी भी थी। फाइनल में चार में से दो गोल करने वाले बलबीर सीनियर ने फाइनल में सर्वाधिक गोल के रिकॉर्ड के साथ हेलसिंकी (1952) और मेलबर्न (1956) में भी स्वर्ण पदक जीते। 

उन्होंने अतीत में भाषा को दिये एक इंटरव्यू में 1948 ओलंपिक की यादें ताजा करते हुए कहा था,‘‘जैसे जैसे तिरंगा ऊपर जा रहा था और राष्ट्रगीत बज रहा था, मुझे लग रहा था कि मैं भी हवा में ऊपर जा रहा हूं। मेरी आंख से आंसू रुक नहीं रहे थे और वह पल मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। हमारा सिर फख्र से ऊंचा हो गया था कि हमने इंग्लैंड को हराया।’’ 

उनकी बेटी सुशबीर ने कहा कि लंदन ओलंपिक की उनके जीवन में खास जगह हमेशा रही। 

उन्होंने कहा ,‘‘जब वह छोटे थे तो उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण ज्यादा समय जेल में ही रहते थे। उन्हें बड़ा अचरज होता था लेकिन वह बाद में बताते थे कि लंदन ओलंपिक में स्वर्ण जीतने के बाद उन्हें देश और तिरंगे के लिये अपने पिता की दीवानगी का अहसास हुआ।’’ 

लंदन ओलंपिक के लिये टीम के चयन की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं रही चूंकि अविभाजित भारत के लिये खेलने वाले नियाज खान, अजीज मलिक, अली शाह दारा और शाहरूख मोहम्मद जैसे खिलाड़ी अब पाकिस्तान की टीम में थे। उस समय भारतीय हॉकी महासंघ के अध्यक्ष नवल टाटा थे जिन्होंने बांबे में टीम के लिये अभ्यास मैचों और शिविरों का आयोजन कराया। 

मेजर ध्यानचंद के समय में टीम समुद्र के जहाज से लंबा सफर तय करके ओलंपिक खेलने जाती रही लेकिन किशन लाल की कप्तानी में लंदन ओलंपिक की टीम हवाई जहाज से गई और टाटा ने अतिरिक्त खर्च उठाया। टीम में केडी सिंह बाबू, केशव दत्त, लेस्ली क्लाउडियस जैसे धुरंधर थे। आंतरिक गुटबाजी के कारण बलबीर को पहले टीम में नहीं चुना गया लेकिन बाद में उनका चयन हुआ और वह तुरूप का इक्का साबित हुए। 

ऑस्ट्रिया को आठ गोल से हराकर भारत ने शानदार आगाज किया। अर्जेंटीना के खिलाफ दूसरे मैच में 9-1 से मिली जीत में छह गोल अंतरराष्ट्रीय हॉकी में पदार्पण करने वाले बलबीर के थे। उस मैच के बाद हालांकि स्पेन के खिलाफ उन्हें उतारा नहीं गया और नीदरलैंड के खिलाफ सेमीफाइनल से पहले तक टीम में उनका नाम नहीं था। सेमीफाइनल में भी उन्हें मैदान पर नहीं उतारा गया। 

सुशबीर ने कहा ,‘‘लंदन में पढ़ रहे भारतीय छात्रों ने वहां तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी के कृष्णा मेनन से मांग की कि फाइनल में उन्हें ब्रिटेन के खिलाफ उतारा जाये। इसके बाद ही वह फाइनल खेल सके।’’ 

एक ऐसी भारतीय टीम ने फाइनल जीता जो विश्व हॉकी में पहला कदम रख रही थी। पांच मैचों में टीम ने सिर्फ दो गोल गंवाये। लंदन ओलंपिक 1948 में भारत की झोली में यही एक पदक आया था। भारत ने इससे पहले भी 1928 (एम्सटरडम), 1932 (लॉस एंजिलिस) और 1936 (बर्लिन) में स्वर्ण पदक जीते थे लेकिन तिरंगे तले लंदन में पहली बार चैम्पियन का दर्जा हासिल करके भारतीय हॉकी के इतिहास का नया अध्याय लिखा गया। अगले दो ओलंपिक में भी भारत ने इस स्वर्णिम दास्तान को जारी रखा था।

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