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Housing Bubble: मंदी के बावजूद नहीं कम हो रहे प्रॉपर्टी के दाम, सस्‍ते मकान के लिए सरकार को उठाने होंगे कदम

सालाना आधार पर बिक्री में 50 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है। लेकिन इन सबके बावजूद प्रॉपर्टी की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है।

Dharmender Chaudhary Dharmender Chaudhary
Updated on: January 20, 2016 8:11 IST
Housing Bubble: मंदी के बावजूद नहीं कम हो रहे प्रॉपर्टी के दाम, सस्‍ते मकान के लिए सरकार को उठाने होंगे कदम- India TV Paisa
Housing Bubble: मंदी के बावजूद नहीं कम हो रहे प्रॉपर्टी के दाम, सस्‍ते मकान के लिए सरकार को उठाने होंगे कदम

नई दिल्‍ली। पिछले दो सालों में देश के रियल एस्‍टेट सेक्‍टर में इनवेट्री लेवल काफी बढ़ चुका है। बेंगलुरु, जो देश का बेहतर प्रदर्शन करने वाला बाजार है, में 27 माह की इनवेंट्री है। अभी तक के सबसे कम बिक्री के दौर से गुजरने के साथ ही डेवलपर्स तनाव में हैं। राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र, बेंगलुरु और चेन्‍नई जैसे प्रमुख बाजार मंदी की चपेट में हैं। देश के टॉप डेवलपर्स का कहना है कि सालाना आधार पर बिक्री में 50 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है। लेकिन इन सबके बावजूद प्रॉपर्टी की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है। क्‍यों?

पैसे की आसान उपलब्‍धता

संकट के इस दौर में भी, प्राइवेट इक्विटी (पीई) कंपनियों ने वित्‍त वर्ष 2014-15 के दौरान भारतीय रियल्‍टी मार्केट में 3 अरब डॉलर का निवेश किया है। लोन को रिफाइनेंस करने के लिए जब नकदी की आसान उपलब्‍धता है तो कीमतें कम क्‍यों घटेंगी? इसके अलावा, अधिकांश पीई इन्‍वेस्‍टमेंट रेजिडेंशियल सेक्‍टर में है। अधिकांश मामलों में कॉस्‍ट ऑफ फंड 17 से 30 फीसदी के बीच है। तो क्‍यो डेवलपर्स कर्जदाताओं को इतना अधिक ब्‍याज दे रहे हैं और बिक्री बढ़ाने के लिए क्‍यों कीमतें नहीं घटा रहे हैं?

इसका उत्‍तर नीचे चार बिंदुओं से स्‍पष्‍ट हो जाएगा:

जमीन खरीदना

जमीन एक महत्‍वपूर्ण कच्‍चा माल है और टोटल प्रोजेक्‍ट लागत में इसका तकरीबन 30 फीसदी हिस्‍सा होता है। डेवलपर्स या तो जमीन खरीदते हैं (उत्‍तर भारत में अधिक प्रचलित विधि) या वे जमीन मालिक के साथ ज्‍वाइंट डेवलपमेंट एग्रीमेंट्स (दक्षिण में ज्‍यादा प्रचलित विधि) करते हैं। यदि डेवलपर्स जमीन खरीदते हैं तो उन्‍हें पहले भुगतान के लिए धन की जरूरत होगी। वहीं ज्‍वाइंट डेवलपमेंट एग्रीमेंट में जमीन मालिक की निश्चित जमीन को डेवलपर प्रोजेक्‍ट के तहत अपनी लागत से विकसित करते हैं।

जमीन खरीदने के लिए धन जुटाने के लिए डेवलपर्स अक्‍सर पीई इन्‍वेस्‍टर्स या प्राइवेट इंडीविजुअल्‍स की मदद लेते हैं। इस फंड की लागत 20 फीसदी होती है, कई मामलों में यह इससे भी अधिक 30 फीसदी तक हो सकती है। जमीन खरीदने और प्रोजेक्‍ट लॉन्‍च करने के बीच डेवलपर्स को कम से कम दो साल तक का समय लग जाता है। हालांकि, इन्‍वेस्‍टर के इंटरेस्‍ट या रिटर्न का मीटर लोन लेने के पहले दिन से ही शुरू हो जाता है। प्रोजेक्‍ट की बुकिंग के दौरान आने वाले पैसे से इन्‍वेस्‍टर को भुगतान किया जाता है यदि तिमाही आधार पर कीमतें नहीं बढ़ती हैं तो डेवलपर्स के लिए यह बहुत गंभीर चुनौती बन जाती है। इसलिए यहां कीमतों में गिरावट की गुंजाइश न के बराबर होती है।

ब्‍लैक मनी

भारत में ब्‍लैक मनी लगाने का सबसे बड़ा स्रोत है रियल एस्‍टेट क्‍योंकि यहां नकदी के उपयोग की संभावनाएं बहुत ज्‍यादा हैं। डेवलपर्स को मंजूरी और अन्‍य जमीन संबंधी स्‍वीकृती के लिए सरकारी अधिकारियों को रिश्‍वत देने के लिए नकदी की आवश्‍यकता होती है। इसके अलावा जमीन मालिक भी जमीन बिक्री पर कैपिटल गेन टैक्‍स कम करने के लिए भी नकदी की मांग करते हैं। इसलिए, यदि बाजार में मांग नहीं भी है तो भी डेवलपर्स के पास नकदी की कोई समस्‍या नहीं होती है, क्‍योंकि यहां ब्‍लैक मनी का फ्लो हमेशा बना रहता है। इसलिए भारत में संकट के दौरान भी डेवलपर्स को कोई समस्‍या नहीं आती है।

कैश फ्लो की कम समझ

दुर्भाग्‍य से, डेवलपर्स या तो यह समझते नहीं है या फि‍र वे जानबूझ कर इसकी अनदेखी करते हैं। एक कमजोर बाजार में, वे इनवेंट्री को होल्‍ड करने को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे तर्क यह है कि कर्जदाताओं को अभी अतिरिक्‍त भुगतान करो और जब बाजार सुधर जाए तब ज्‍यादा से ज्‍यादा मकान बेचो। इस प्रक्रिया में वे कैश फ्लो की समस्‍या से संघर्ष करते हैं।

कच्‍चा माल

डेवलपर्स का कमोडिटी की कीमतों पर कोई नियंत्रण नहीं है। स्‍टील, सीमेंट, लेबर और अन्‍य घटक प्रोजेक्‍ट कॉस्‍ट का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा हैं। यदि सीमेंट और स्‍टील सेक्‍टर में तेजी आती है तो इससे घरों की कीमत बढ़ सकती हैं। वर्तमान में एक प्रोजेक्‍ट को पूरा होने में तीन से पांच साल का वक्‍त लगता है। एक डेवलपर प्रोजेक्‍ट लॉन्‍च करने के दिन एक बहुत बड़ी संख्‍या में फि‍क्‍स रेट पर यूनिट की बिक्री करता है। इन पांच साल के दौरान कच्‍चे माल की कीमत बढ़ जाती हैं, जिसे मौजूदा ग्राहकों के ऊपर नहीं डाला जा सकता है। ऐसे में इस बढ़ी हुई लागत को कम करने का एक ही रास्‍ता बचता है कि इसे नए ग्राहकों पर डाल दिया जाए। ऐसे में, इसका मतलब ये हुआ कि यदि डेवलपर प्रोजेक्‍ट कॉस्‍ट को मैनेज करता है तो कीमतें ऊपर चढ़ेंगी।

इन सबका परिणाम यह होता है कि अधिकांश भारतीयों के लिए घर का सपना पूरा करना आसान नहीं रह जाता, जो कि इंडस्‍ट्री के लिए अच्‍छी चीज नहीं है। हालांकि, कुछ कदम हैं जो कीमतें कम करने में मदद कर सकते हैं :

  • अप्रूवल टाइमलाइन में कमी: सरकार को सिंगल विंडो क्लियरेंस सिस्‍टम लाना चाहिए। यदि रियल एस्‍टेट प्रोजेक्‍ट संबंधी अप्रूवल लेने का समय 50 फीसदी घट जाता है, तो इससे अप्रूवल लागत में 5 से 10 फीसदी का करेक्‍शन आएगा, इस फायदे को डेवलपर्स उपभोक्‍ता तक पहुंचा सकते हैं।
  • अंतहीन रिफाइनेंस विकल्‍प कम हों: यह कदम कुछ हद तक डेवलपर्स को कीमतें कम करने पर मजबूर करेगा। न्‍यूनतम राशि और एफडीआई के लिए रियल एस्‍टेट सेक्‍टर को खोलने जैसे कदम उठाकर सरकार ने डेवलपर्स को कीमतें न कम करने का मौका दिया है और अब उनके पास कैश फ्लो बनाए रखने के लिए और विकल्‍प खुल गए हैं। यहां ये जरूरी है कि नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों और डेट फंड्स पर कुछ प्रतिबंध लगाए जाएं।
  • लैंड बैंक: भारत सरकार के पास सबसे ज्‍यादा जमीन है, जिसमें से बहुत बड़ा हिस्‍सा अनुपयोगी पड़ा है। यदि सरकार मेट्रो शहरों में अपनी जमीन की नीलामी करती है तो प्राइवेट जमीन मालिक भी अपनी जमीन की कीमतों को कम करने पर मजबूर होंगे।
  • तकनीक का इस्‍तेमाल: अंत में, तकनीक का इस्‍तेमाल जैसे प्री-कास्‍ट विधि से भी निर्माण समय में 50 फीसदी की कमी लाई जा सकती है। प्री-कास्‍ट निर्माण के एक इंडस्ट्रियल विधि है। इसमें साइट से काम को फैक्‍ट्री में ट्रांसफर किया जाता है। इससे समय कम लगता है, उत्‍पादकता में सुधार होता है और गुणवत्‍ता भी बढ़ती है। इससे कर्ज पर ब्‍याज की लागत भी कम होती है, जिसका फायदा उपभोक्‍ताओं को मिल सकता है।

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