Afghanistan Bagram Air Base: अफगानिस्तान के उत्तर में स्थित बगराम एयरबेस सिर्फ एक हवाई अड्डा नहीं है, इसे बीते 70 वर्षों से बड़ी सैन्य रणनीतियों का केंद्र भी कहा जा सकता है। यहां कभी सोवियत संघ के सैनिकों की गूंज सुनाई देती थी, फिर अमेरिकी सेना ने इसे अपने आधुनिक युद्ध का गढ़ बना दिया। आज, जब अमेरिका की नजर एक बार फिर इस एयरबेस पर टिक रही है, तो सवाल उठता है आखिर बगराम की इतनी अहमियत क्यों है। रूस, ईरान और पाकिस्तान इसका विरोध क्यों कर रहे हैं चलिए यह भी जानते हैं।
बगराम एयरबेस का इतिहास
बगराम एयरबेस का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था, जब अफगानिस्तान के राजा जहीर शाह ने देश को आधुनिक बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए थे। उस समय अमेरिकी और सोवियत प्रभाव दोनों ही अफगान राजनीति में बढ़ रहे थे। दिलचस्प बात यह है कि शुरुआत में इसका डिजाइन सोवियत इंजीनियरों ने तैयार किया था। 1979 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया, तो बगराम उनका मुख्य सैन्य ठिकाना बन गया। यहां से रूसी फाइटर जेट्स और बमवर्षक विमान अफगान मुजाहिदीन के ठिकानों पर हमला करते थे।
बगराम बना अमेरिका का सैन्य ठिकाना
1989 में जब सोवियत सेना वापस लौटी तो बगराम एक खंडहर में बदल गया लेकिन समय बदला और 2001 में अमेरिका पर 9/11 के आतंकी हमलों के बाद जब अमेरिका ने 'वार ऑन टेरर' शुरू किया, तो अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ सबसे बड़ा अमेरिकी ऑपरेशन यहीं से चला। बगराम एयरबेस को अमेरिका ने दुनिया का सबसे आधुनिक सैन्य ठिकाना बना दिया। यहां लगभग 10,000 सैनिक, ड्रोन नियंत्रण केंद्र, मिसाइल लॉन्च सिस्टम और हाई-टेक जेल भी थी। जेल में संदिग्ध आतंकियों को रखा जाता था।
रणनीतिक महत्व के लिहाज से अहम है बगराम
बगराम एयरबेस काबुल से मात्र 60 किलोमीटर दूर है और इसे अफगानिस्तान का सेंटर प्वाइंट कहा जा सकता है। इसका स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि यहां से अमेरिका आसानी से ईरान, पाकिस्तान, चीन, रूस के मध्य एशियाई इलाकों तक सैन्य नजर रख सकता है। उत्तर में ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान, पश्चिम में ईरान, दक्षिण में पाकिस्तान और पूर्व में चीन। ये सभी देश बगराम के दायरे में आते हैं। यही वजह है कि अमेरिका के लिए यह एयरबेस खासा अहमियत रखता है। यहां से अमेरिका ने ना केवल अफगानिस्तान बल्कि पाकिस्तान के कबायली इलाकों में ड्रोन हमले भी किए हैं।

फिर अमेरिका की दिलचस्पी क्यों बढ़ी?
अगस्त 2021 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया, तो अमेरिकी सैनिकों ने बगराम छोड़ दिया। लेकिन 2024 के बाद से अफगानिस्तान में फिर से आईएस-खुरासान (ISIS-K) और अन्य आतंकी संगठनों की सक्रियता बढ़ने लगी है। अमेरिका अब फिर से 'ओवर द होराइजन ऑपरेशन' यानी दूर से हमला करने की रणनीति पर काम कर रहा है। इसके लिए अफगानिस्तान के अंदर या नजदीक कोई ऐसा ठिकाना चाहिए जहां से निगरानी और हमले दोनों काम किए जा सकें और इसके लिए बगराम से बेहतर भला कौन सा स्थान हो सकता है। कई रिपोर्टों में तो यहां तक भी दावे किए गए हैं कि अमेरिका गुपचुप तरीके से इस एयरबेस को किराए पर वापस लेने या किसी तीसरे देश के माध्यम से लॉजिस्टिक एक्सेस हासिल करने की कोशिशों में जुटा है।
'अफगानिस्तान की संप्रभुता है सबसे पहले'
बगराम एयरबेस पर अमरेका की ओर दिए गए बयानों पर भारत का रुख भी सामने आया है। मॉस्को में आयोजित सातवें ‘मॉस्को फॉर्मेट’ सम्मेलन में भारत ने बगराम एयरबेस का नाम तो नहीं लिया मगर कहा कि अफगानिस्तान की संप्रभुता और स्थिरता सबसे पहले है। मॉस्को फॉर्मेट की बैठक में अफगानिस्तान, भारत, चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान, ताजिकिस्तान समेत कई अन्य देश शामिल थे। इस बैठक में पहली बार तालिबान की तरफ से विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी शामिल हुए। तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी का भारत दौरा भी होने वाला है।
रूस को लिए होगी असहज स्थिति
रूस बगराम एयरबेस पर अमेरिका की दोबारा नजर से बेहद असहज है। रूस जानता है कि अगर अमेरिका को अफगानिस्तान में फिर से पैर जमाने का मौका मिला, तो मध्य एशिया में उसकी सैन्य पकड़ कमजोर पड़ जाएगी। रूस पहले ही यूक्रेन युद्ध में उलझा हुआ है, और उसे डर है कि अमेरिका बगराम के जरिए रूसी सीमाओं के पास निगरानी या जासूसी नेटवर्क खड़ा कर सकता है।
इसलिए मॉस्को ने खुले तौर पर कहा है कि वह अफगानिस्तान में किसी भी विदेशी सैन्य ठिकाने की वापसी का विरोध करेगा।
ईरान के सामने होगी सीधी चुनौती
ईरान के लिए बगराम एयरबेस एक सीधी सुरक्षा चुनौती है। बगराम उसकी सीमा से बहुत दूर नहीं है और जब अमेरिका ने इसे अपने कब्जे में रखा था, तो ईरान के परमाणु कार्यक्रम और सैन्य गतिविधियों की निगरानी यहीं से की जाती थी। तेहरान मानता है कि अगर अमेरिका दोबारा यहां लौटता है, तो यह केवल अफगानिस्तान के लिए नहीं बल्कि ईरान के खिलाफ जासूसी और दबाव की नई शुरुआत होगी। ईरान ने इसे लेकर तालिबान के साथ बातचीत बढ़ा दी है जिससे अफगान जमीन पर अमेरिकी वापसी को रोका जा सके।

दिलचस्प है पाकिस्तान का की हाल
पाकिस्तान की स्थिति सबसे दिलचस्प है। एक ओर वह खुद को अमेरिका को सुरक्षा साझेदार बताता है, दूसरी ओर तालिबान से भी नजदीकी बनाए रखता है। 2021 में अमेरिकी वापसी के समय पाकिस्तान ने अमेरिकी विमानों को अपने एयरस्पेस से गुजरने की अनुमति दी थी, लेकिन अब उसका रुख समझ से परे है। पाकिस्तान नहीं चाहता कि अमेरिका फिर से अफगानिस्तान में सैन्य ठिकाना बनाए, क्योंकि इससे तालिबान उससे नाराज हो सकत है। पाकिस्तान तालिबान की नाराजगी को नजरअंदाज नहीं कर सकता है और उसके सामने हालात ऐसे बन गए हैं कि 'ना उगला जाए और ना निगला जाए।'
तालिबान की ताकत का प्रतीक है बगराम
तालिबान बगराम को राष्ट्रीय संप्रभुता का प्रतीक मानते हैं। उन्होंने इसे अपने नियंत्रण में लेने के बाद इसे इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान की सैन्य शक्ति कहा है। तालिबान के लिए यह एयरबेस प्रचार का हथियार भी है, जो कभी अमेरिका की शक्ति का प्रतीक था, अब वह उनके हाथ में है। इसलिए, वो किसी भी विदेशी ताकत को यहां पैर रखने नहीं देंगे। तालिबान ने इसे अपने सैन्य और प्रशिक्षण ठिकाने के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। हालांकि, इस तरह की खबरें भी हैं कि यहां कुछ मरम्मत और निर्माण कार्य हो रहे हैं। ऐसे में अटकलें लगाई जा रही हैं कि तालिबान शायद चीन या रूस को किसी रूप में सैन्य सहयोग की अनुमति दे सकते हैं। यदि ऐसा होता है, तो अमेरिका का सपना बगराम में दोबारा पैर जमाने का लगभग खत्म हो जाएगा। बगराम एक बार फिर नए भू-राजनीतिक खेल का केंद्र बन जाएगा।
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