Saturday, May 18, 2024
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केजरीवाल अपने आर्दश से भटक जीत को दी तरजीह

नई दिल्ली: आम आदमी पार्टी (आप) के भीतर पिछले कुछ सप्ताह में घटी घटनाएं यह मानने के लिए मजबूर करती हैं कि अरविंद केजरीवाल स्टालिन जैसे तनाशाही शासक हैं जो लोकतंत्र और अनबन से नफरत

IANS
Updated on: March 31, 2015 11:37 IST
- India TV Hindi

नई दिल्ली: आम आदमी पार्टी (आप) के भीतर पिछले कुछ सप्ताह में घटी घटनाएं यह मानने के लिए मजबूर करती हैं कि अरविंद केजरीवाल स्टालिन जैसे तनाशाही शासक हैं

जो लोकतंत्र और अनबन से नफरत करते हैं तथा जिन्हें जी हुजूरी करने वाले पसंद हैं।

लेकिन आप के भीतर मचे हड़कंप के पीछे इससे कहीं जटिल सच्चाई छिपी हुई है।

इस पूरे मामले में प्रशांत भूषण का मामला सबसे रोचक है, जो अब उस पार्टी से पूरी तरह बाहर किए जा चुके हैं, जिसे उन्होंने योगेंद्र यादव के साथ मिलकर 2012 में स्थापित करने में केजरीवाल की मदद की।

पिछले वर्ष जब दिल्ली विधानसभा चुनाव अपने चरम पर था, प्रशांत भूषण के पिता और आप के संस्थापक सदस्य शांति भूषण ने पार्टी का प्रमुख चेहरा बन चुके केजरीवाल के खिलाफ बयानबाजी की।

शांति भूषण ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में उनके दो पसंदीदा व्यक्तियों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की प्रत्याशी किरण बेदी और कांग्रेस प्रत्याशी अजय माकन होंगे, जबकि केजरीवाल उनकी प्राथमिकता में तीसरे नंबर पर हैं।

हालांकि हम सभी इसके गवाह हैं कि दिल्ली के मतदाताओं ने उनकी पसंद पर मुहर नहीं लगाई।

एक हकीकत यह भी है कि जब दिल्ली में जोड़-तोड़ का खेल चल रहा था तब प्रशांत भूषण संदेहास्पद तरीके से पूरे परिदृश्य से गायब रहे। यहां तक कि पत्रकारों को भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या वह आप के साथ हैं या नहीं।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के उन बेहद चुनौतीपूर्ण दिनों में चुप्पी साध रखे प्रशांत आप को मिली भारी जीत के साथ केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होते ही अचानक बेहद सक्रिय हो उठे।

योगेंद्र के साथ प्रशांत ने अचानक आंतरिक लोकतंत्र की कमी का हवाला देते हुए आप की निंदा करनी शुरू कर दी। इसके लिए जब केजरीवाल समर्थकों ने उनकी खिलाफत शुरू की तो वह और उग्र होते गए।

अगर हम मान भी लें कि योगेंद्र और प्रशांत द्वारा केजरीवाल पर लगाए गए सारे आरोप सही हैं, तो भी यह नहीं समझ आता कि वह मुख्यमंत्री को छह महीने भी शांति से काम क्यों नहीं करने देना चाहते।

इसे कोई पसंद करे या न करे, लेकिन सच्चाई यही है कि दिल्ली की जनता ने न तो उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, न ही प्रशांत और न ही योगेंद्र के लिए मतदान किया। दिल्ली की जनता का समर्थन पूरी तरह केजरीवाल को था, जिन्होंने सीधे-सीधे नरेंद्र मोदी को मात दी।

आप ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। कोई संस्थान, संगठन या व्यक्ति संपूर्ण नहीं होता, और केजरीवाल को पार्टी से जुड़े मामले उठाने से पहले थोड़ी और मोहलत दी जानी चाहिए थी।

केजरीवाल ने शनिवार को हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जो खुलासा किया उससे स्पष्ट होता है कि वह पूरे चुनाव के दौरान इस मामले पर चुप्पी साधे रहे। लेकिन चुनाव खत्म होते ही उनका आपा फूट पड़ा।

वास्तव में केजरीवाल के सामने सिर्फ दो रास्ते थे- एक या तो वह पार्टी को प्रशांत और योगेंद्र के मुताबिक संपूर्ण बनाने पर ध्यान देते या दिल्ली विधानसभा चुनाव में शून्य से शिखर की ओर ले जाते। और केजरीवाल ने दूसरा विकल्प चुना।

केजरीवाल भी हालांकि इस झमेले से साफ-शफ्फाक नहीं निकल सके। सही या गलत, वह एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाई दिए जो असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकते या भिन्न मत रखने वालों को स्वीकार नहीं कर सकते।

प्रशांत और योगेंद्र को पार्टी से बाहर निकालने का मामला अलग है, लेकिन पार्टी के आंतरिक लोकपाल एडमिरल एल. रामदास को उन्हें सूचित करने का शिष्टाचार निभाए बगैर हटाना बिल्कुल दूसरे तरह का मामला है।

आप को यदि देश में वैकल्पिक राजनीति खड़ी करनी है तो उसे असहमति जताने वाले हर व्यक्ति के साथ शत्रु जैसा बर्ताव करने से बचना होगा।

जैसा कि केजरीवाल ने शपथ ग्रहण करते हुए रामलीला मैदान में कहा था कि वह दिल्ली के हित में किरण बेदी और अजय माकन से सलाह मशविरा करने के लिए तैयार हैं तो उन्हें निश्चित तौर पर रामदास के प्रति अधिक विचारशील रवैया अपनाना चाहिए था। आदर देने से ही मिलता है।

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