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सबको हंसाया खुद बहाए आंसू! बचपन में हुईं अनाथ, चौल में बीता बुढ़ापा, कुछ ऐसी थी भारत की पहली लाफ्टर क्वीन की जिंदगी

जब भी लाफ्टर क्वीन की बात की जाती है तो लोगों के दिमाग में एक ही नाम आता है और वो है भारती सिंह, लेकिन क्या आपको भारत की पहली लाफ्टर क्वीन का नाम पता है, जो बहुमुखि प्रतिभा की धनी थीं। ये कोई और नहीं सिंगर एक्टर टुन टुन थीं। आज हम आपको इनके असली नाम से लेकर सब कुछ इनके बारे में बताएंगे।

Written By: Jaya Dwivedie @JDwivedie
Published : Jul 11, 2024 6:13 IST, Updated : Jul 11, 2024 7:45 IST
tun tun- India TV Hindi
Image Source : FILE PHOTO टुन टुन।

बीते जमाने की कॉमेडियन टुन टुन का असल नाम उमा देवी खत्री है। उमा देवी की आज 101वीं जयंती है। उमा देवी खत्री की जिंदगी भी किसी इमोशनल फिल्म से कम नहीं थी। प्रेरणा और त्रासदी दोनों का मिश्रण रहा इनका जीवन कई इमोशन्स के धागों से मिलकर तैयार हुआ था। 45 गानों को अपनी मधुर आवाज देने और लगभग 180 फिल्मों में अपनी आवाज देने के बावजूद उनकी विरासत कई लोगों के लिए आज भी अज्ञात है। उत्तर प्रदेश के अमरोहा के पास एक गांव की उमा रहने वाली थीं। भूमि विवाद के कारण उनके परिवार की हत्या कर दी गई, जिससे वह कम उम्र में ही अनाथ हो गईं। उनके माता-पिता के चेहरे पहले ही उनकी यादों से मिट चुके थे, क्योंकि उन्हें ऐसे रिश्तेदारों ने पाला जो उन्हें घर परिवार के सदस्य से ज्यादा एक कामवाली समझते थे। 

रेडियो से की करियर की शुरुआत

इन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बीच उमा को रेडियो से सुकून मिला, जो उनका सबसे करीबी साथी बन गया। वह अपने रिश्तेदारों के चंगुल से बचकर बचपन के गीतों को गाते हुए खुद को रेडियो की धुनों में डुबो लेती थीं। इन्हीं पलों में फिल्मों के लिए पार्श्व गायिका बनने का उनका सपना जन्म लेता था। अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को हकीकत में बदलने की चाहत में उमा 23 साल की उम्र में अपनी नई हकीकत की तलाश में बंबई भाग गईं। अपने चुलबुले और हंसमुख व्यक्तित्व, अपनी हास्य भावना और सरल बोलने की शैली के साथ वह बेहद पसंद की जाने लगीं। ये गुण उनके करियर में अमूल्य संपत्ति साबित हुए क्योंकि ये मनोरंजन उद्योग में उनके जीवन के दो सबसे महत्वपूर्ण बिंदुओं का प्रतीक थे। 

खुद हासिल किया मुकाम

साल 1945 में अपने दृढ़ संकल्प और गायन के प्रति जुनून से प्रेरित होकर उमा ने खुद को नौशाद अली के दरवाजे पर पेश किया और साहसी घोषणा की। अपने आप को उनके बंगले के बगल में समुद्र में फेंकने की धमकी देते हुए उन्होंने अपनी योग्यता साबित करने का अवसर मांगा। नौशाद अली ने आश्चर्यचकित होकर उन्हें ऑडिशन देने की अनुमति दी जिसने हमेशा के लिए उनका जीवन बदल दिया। औपचारिक संगीत प्रशिक्षण की कमी के बावजूद उमा की आवाज में एक अनोखी मिठास थी जिसने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। यह उनकी गायकी की शुरुआत थी, जब 1947 में फिल्म दर्द में नौशाद द्वारा स्वयं रचित गीत 'अफसाना लिख ​​रही हूं दिल-ए-बेकरार का' को आवाज दी।

गायकी से था प्यार

'दर्द' की सफलता और उनकी उल्लेखनीय गायन प्रतिभा ने उमा को कई गानों के प्रस्ताव दिए। हालांकि, निर्देशक एसएस वासन के साथ 'चंद्रलेखा' में उनके सहयोग ने उन्हें एक गायिका के रूप में उनके करियर के शिखर पर पहुंचाया। यह ध्यान देने योग्य है कि उमा ने कभी संगीत या गायन में औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया। फिर भी 'चंद्रलेखा' में उनके सात गाने, जिनमें लोकप्रिय ट्रैक 'सांझ की बेला' भी शामिल है, उनके गायन करियर का शिखर बने हुए हैं। उन्होंने यह सब सीमित स्वर सीमा और पुरानी गायन शैली का पालन करने के बावजूद हासिल किया, जो फैशन से बाहर हो गई थी।

सिंगर से जब बनीं एक्टर

इस युग के बाद उमा ने अपने परिवार और घरेलू जिम्मेदारियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उद्योग से विराम लेने का फैसला किया। जब उन्होंने 1950 के दशक में वापसी की तो एक और महत्वपूर्ण क्षण उनका इंतजार कर रहा था। नौशाद अली के दरवाजे पर लौटते हुए उन्होंने उनके नटखट व्यक्तित्व और त्रुटिहीन कॉमिक टाइमिंग को पहचानते हुए उन्हें अभिनय में उतरने के लिए प्रोत्साहित किया। उमा ने नौशाद के साथ एक समझौता किया कि वे तभी फिल्म में काम करेंगी जब दिलीप कुमार उनके साथ स्क्रीन शेयर करेंगे। यह फिल्म थी 1950 में आई 'बाबुल'।

ऐसे मिला नाम टुनटुन

उनकी इच्छा पूरी हुई और इसके साथ ही एक नया नाम आया जो हमेशा के लिए उनके हास्य व्यक्तित्व के साथ जुड़ गया, ये था टुन टुन और इसी के साथ ही उमा हमेशा के लिए टुन टुन बन गईं। एक ऐसा नाम जिसे खुद दिलीप कुमार ने गढ़ा था। इस नाम को अपनाते हुए, उमा ने हिंदी सिनेमा में पहली महिला हास्य कलाकार का स्थान हासिल कर लिया। हालांकि उन्होंने 200 से ज्यादा फिल्मों में हास्य भूमिकाएं निभाईं, लेकिन उमा को कभी वह पहचान नहीं मिली जिसकी वे हकदार थीं। अपने पांच दशक के लंबे करियर के दौरान उन्होंने हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अन्य भाषाओं की फिल्मों में अभिनय किया, जिसमें भगवान दादा और सुंदरा जैसे अपने समय के बड़े हास्य अभिनेताओं के साथ अभिनय किया। उन्होंने 'आवारा' (1951), 'मिस्टर एंड मिसेज '55' (1955) और 'प्यासा' (1957) जैसी फिल्मों में अपनी अमिट छाप छोड़ी और खुद को बॉलीवुड के हास्य परिदृश्य में एक स्थायी कलाकार के रूप में स्थापित किया। उमा देवी खत्री की आखिरी हिंदी फिल्म 'कसम धंधे की' (1990) थी। इसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा से संन्यास लेने का फैसला किया।

ऐसा बीता अंतिम वक्त

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस दौरान कॉमेडी में मोटापे को लेकर चर्चा का अभाव था। हालांकि उन्होंने पूरे दिल से टुन टुन की उपाधि को अपनाया और अपनी अनूठी कॉमेडी शैली और स्वभाव को स्क्रीन पर उतारा। टुन टुन की लोकप्रियता का कोई मुकाबला नहीं कर सका और उनका नाम भारत में प्लस-साइज किरदारों का पर्याय बन गया। यह जानकर दुख होता है कि उमा अपने व्यापक योगदान और एक स्थायी हास्य कलाकार के रूप में प्रशंसित होने के बावजूद अपने करियर के लिए कभी भी कोई पुरस्कार नहीं प्राप्त कर पाईं। शशि रंजन के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने दुख व्यक्त किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन उद्योग को समर्पित कर दिया, लेकिन अंततः उद्योग ने उन्हें त्याग दिया। अपने जीवन के अंत तक वह एक साधारण घर में रहती थीं, खराब रहने की स्थिति और बीमारी से जूझती रहीं, न तो अपना गुजारा कर पाती थीं और न ही उचित चिकित्सा देखभाल का खर्च उठा पाती थीं

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