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बाली में हिंदुत्व की कहानी India TV रिपोर्टर की जुबानी!

नई दिल्ली: बुरी तरह खाली हूँ। सो बुरी तरह लिख रहा हूँ। इंडोनेशिया के बाली में हिंदुत्व। दंग हूँ। बुरी तरह दंग हूँ। बाली में हिंदुत्व का ये उभार देखकर। "ॐ स्वस्ति अस्तु।" ये बाली

Abhishek Upadhyay
Updated on: November 10, 2015 12:38 IST

हम अक्सर ही अपने वर्तमान में अतीत को ज़िंदा होते हुए महसूस करते हैं। शायद कुछ भी नही मिटता। बस शक्लें बदल जाती हैं। या फिर नज़रिया। बाली की 83 फीसदी आबादी हिन्दू है। जगह जगह राम हैं। जटायु हैं। सुग्रीव और बाली को तो न किसी घर की ज़रूरत है। न मन्दिर की। वे यहां के लोगों की ज़ुबाँ पर रहते हैं। मैंने पहली बार ज़ुबानों पर बसे घर देखे। ईंट, गारे और सीमेंट के घरों से कहीं ज़्यादा मज़बूत। कहीं ज़्यादा टिकाऊ।

प्राचीन बाली में पाशुपत, भैरव, वैष्णव, ब्रह्म और गणपत सरीखे हिंदुओं के 9 सम्प्रदाय हुआ करते थे। बाली और जावा के बीच पड़ने वाले 'माउंट अगुंग' के खतरनाक ज्वालामुखी की लपटों में। तब से अब तक। कितना कुछ ख़ाक हुआ। कितना राख हुआ। पर निशान हैं कि मिटते ही नही। दिन बीतते जा रहे हैं। साथ ही साथ हम भी बीत रहे हैं।

बाली का पुलिस स्टेशन। पोल्डा बाली। बाली में ये जगह ही हमारा तीर्थ है। हम दिन-रात यहीं धूनी रमाए बैठे हैं। मानो काशी का अस्सी घाट हो कोई। भीतर छोटा राजन क़ैद है। राजन की सुरक्षा में लगे बाली पुलिस के जवानो से दोस्ती हो चुकी है। चिलचिलाती धूप में थाने की ये छत स्वर्ग सरीखी लगती है। यहां भी वही हिंदू धर्म। हम बाली पुलिस के जवानो के साथ लकड़ी की बेंचों पर बैठकर सस्वर निनाद कर रहे थे- ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्। ठीक उसी वक़्त अज़ान हो रही थी। ज़ुहर की नमाज़ का वक़्त हो चला था। पहली बार अज़ान की ध्वनि के बीच गायत्री मन्त्र का सस्वर निनाद किया। लगा कि अल्लाह और ईश्वर ने एक दूसरे का हाथ पकड़ आसमानो से एक साथ झाँका हो। और हमसे पूछा हो-' क्या अब भी फ़र्क़ करते हो?'

गायत्री मन्त्र समाप्त होते ही मैं रुक गया। मगर बाली पुलिस के वे जवान नही रुके-' येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो-महाबलः....।'  एक बार लगा मानो कोई कपाट खुल गया हो। पुराणों के पन्ने खड़खड़ा रहे हों जैसे। वामनावतार। भगवान विष्णु को बन्धन मुक्त करता महापराक्रमी महादानी राजा बलि। बहन लक्ष्मी को मुँहमाँगा वरदान देता हुआ। मुझे अनायास ही गुलज़ार याद आ गए-' जो चाहे ले लो, दशरथ का वादा.......।

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