भारत में स्थिति और भी गंभीर है, क्योंकि यहां रेडिएशन सुरक्षा नियमों का पालन न करने वाली कंपनियों द्वारा बने सस्ते मोबाइल उपकरणों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। तिवारी के मुताबिक, "विकसित होते मस्तिष्क, मस्तिष्क में अधिक ऊर्जा के अवशोषण और पूरे जीवनकाल में ज्यादा संपर्क में रहने के कारण वयस्कों की तुलना में बच्चे इससे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं।"
तमाम बहस के बावजूद सच्चाई यह भी है कि ये तकनीकें आज की जरूरत बन चुकी हैं। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार] भारत की कुल 125 करोड़ आबादी के पास 98 करोड़ मोबाइल कनेक्शन हैं।
सेल्यूलर 'ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) का कहना है कि भारत में इससे जुड़े सुरक्षा नियमों का पूरा ध्यान रखा जाता है। सीओएआई के निदेशक राजन एस.मैथ्यूज ने आईएएनएस को बताया, "भारत सरकार ईएमएफ के लिए वैश्विक सुरक्षा नियमों का कठोरता से पालन करती है। डबल्यूएचओ द्वारा निर्देशित उत्सर्जन स्तर के अनुसार अन्य देशों से भारत में यह 1/10वां है। ईएमएफ उत्सर्जन से जुड़ी आशंकाओं को दूर करने और सरकार के डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के स्वप्न को पूरा करने के लिए सरकार का सहयोग और दिशा-निर्देश बेहद महत्वपूर्ण है।" ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हाइजीन एंड पब्लिक हेल्थ की मधुबिता दोब भारत में ईएचएस पर अधिक शोध करने पर जोर देती हैं।
ईएचएस का नकारात्मक प्रभाव होता है या नहीं, इस विवाद और किशोरों के उपकरणों से हर समय संपर्क में रहने को देखते हुए तिवारी और खान 'ग्रीन कम्युनिकेशन' यानी वायरलेस संचार से जुड़े खतरों और खराबियों को कम करने पर बल देते हैं। फिलहाल बातचीत के स्थान पर टेक्स्ट करके, वाई फाई उपकरणों से थोड़ी दूरी बनाकर, जरूरी होने पर ही इस्तेमाल करने और सोते समय सिराहने के नीचे न रखकर इनसे संभावित खतरों से बचने का प्रयास किया जा सकता है।