
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2025 आने वाला है और इस अवसर पर इंडिया टीवी कई भारतीय महिलाओं के बारे में बताने जा रहा है जिन्होंने मनोरंजन जगत में नई ऊंचाइयों को छुआ। आज हम आपको हिंदी सिनेमा की पहली महिला कॉमेडियन के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने 90 के दशक में अपनी अलग पहचान बनाई और कई पीढ़ियों तक अपने काम से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। जी हां! हम बात कर रहे हैं टुनटुन की, जिनका असली नाम उमा देवी खत्री था। लोगों को हंसाने वाली इस अदाकारा-गायिका की जिंदगी किसी इमोशनल सफर से कम नहीं थी। उमा उत्तर प्रदेश के अमरोहा के पास एक गांव की रहने वाली थीं। जमीन विवाद के चलते उनके परिवार की हत्या कर दी गई थी, जिससे वह कम उम्र में ही अनाथ हो गई थीं। उनके माता-पिता के चेहरे पहले ही उनकी यादों से मिट चुके थे, क्योंकि उनका पालन-पोषण ऐसे रिश्तेदारों ने किया था जो उनके साथ परिवार के सदस्य से ज्यादा एक नौकरानी की तरह व्यवहार करते थे। लेकिन उनके जीवन का सबसे दुखद पहलू यह है कि 45 गानों को अपनी मधुर आवाज देने और 200 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय करने के बावजूद, उनकी विरासत आज भी कई लोगों के लिए अज्ञात है।
ऐसे पहुंचीं मुंबई
इन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बीच उमा को रेडियो ने सुकून दिया, जो उनका सबसे करीबी दोस्त बन गया। वह अपने रिश्तेदारों के चंगुल से बचकर रेडियो की धुनों में खो जाती थी। वहीं पर वो गाने गाती थीं। यहीं से उन्होंने फिल्मों में प्लेबैक सिंगर बनने का सपना देखा। अपने सपने को हकीकत में बदलने की चाहत उमा को मुंबई (तब बंबई) ले आई। वो भागकर आई थीं। चुलबुले और खुशमिजाज व्यक्तित्व और सरल बोलने के अंदाज के कारण वह मुंबई वासियों को भा गईं। की
ऐसे मिला बड़ा ब्रेक
साल 1945 में अपने दृढ़ संकल्प और गायन के प्रति जुनून के चलते उमा नौशाद अली के दरवाजे पर पहुंचीं और एक साहसिक कदम उठा लिया। उन्होंने सीधे तौर पर उन्हें धमकी दी और कहा कि उन्हें अपनी योग्यता साबित करने का मौका दें, वरना वो समुद्र में डूब कर मर जाएंगी। नौशाद अली ने उन्हें ऑडिशन देने की अनुमति दी, जिसने उनकी जिंदगी बदल दी। बिना किसी संगीत प्रशिक्षण के भी उमा की आवाज में एक अनोखी मिठास थी जो लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थी। उन्होंने 1947 की फिल्म 'दर्द' में नौशाद द्वारा रचित गीत 'अफसाना लिख रही हूं दिल-ए-बेकरार' गाकर अपनी गायकी की शुरुआत की। 'दर्द' की सफलता और उनकी उल्लेखनीय गायन प्रतिभा ने उमा को कई गानों के ऑफर दिलाए। हालांकि, 'चंद्रलेखा' के निर्देशक एसएस वासन ने उनकी मदद की और इसकी के जरिए वो अपने करियर के शिखर पर पहुंच गईं। 'चंद्रलेखा' में उनके सात गाने, जिनमें लोकप्रिय ट्रैक 'सांझ की बेला' भी शामिल है, लोगों का आज भी चहेता गाना है।
फिर बनीं एक्ट्रेस
इस दौर के बाद उमा ने अपने परिवार और घरेलू जिम्मेदारियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इंडस्ट्री से ब्रेक लेने का फैसला किया। जब वह 1950 के दशक में वापस लौटीं तो उनकी लाइफ ने यूटर्न ले लिया था। नौशाद अली ने फिर एक बार उनके हुनर को पहचाना। उनके शरारती व्यक्तित्व और बेहतरीन कॉमिक टाइमिंग के चलते उन्हें अभिनय के लिए प्रोत्साहित करने वाले नौशाद ही थे। नौशाद के साथ उमा ने झट से एक समझौता किया कि वह तभी किसी फिल्म में काम करेंगी जब दिलीप कुमार उनके साथ स्क्रीन शेयर करेंगे। यह फिल्म 'बाबुल' थी, जो 1950 में रिलीज हुई थी।
कैसे हुआ टुनटुन का जन्म
फिल्मों में काम मिलने के साथ ही उन्हें टुनटुन स्क्रीन नेम मिला और यही उनकी पहचान बन गया। इस नाम को किसी और ने नहीं बल्कि लेजेंड्री दिलीप कुमार ने उन्हें दिया था। इस नाम को उन्होंने खुले दिल से अपना लिया और इसी के साथ भारत की पहली महिला कॉमेडियन का दर्जा भी हासिल किया। उमा ने 200 से ज्यादा फिल्मों में कॉमिक रोल किए। अपने पांच दशक लंबे करियर के दौरान, उन्होंने हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अन्य भाषाओं की फिल्मों में काम किया। उन्होंने 'आवारा' (1951), 'मिस्टर एंड मिसेज '55' (1955) और 'प्यासा' (1957) जैसी फिल्मों में अपनी अमिट छाप छोड़ी और खुद को बॉलीवुड कॉमेडी परिदृश्य में एक स्थायी कलाकार के रूप में स्थापित किया। उमा देवी खत्री की आखिरी हिंदी फिल्म कसम धंधे की (1990) थी। इसके बाद उन्होंने अभिनय से संन्यास लेने का फैसला किया।
टुनटुन के अंतिम क्षण
उनकी लोकप्रियता बेजोड़ थी और उनका नाम भारत में प्लस-साइज किरदारों का पर्याय बन गया। ये गौर करने वाली बात है कि उमा को अपने करियर के लिए कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला। शशि रंजन के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन उद्योग को समर्पित कर दिया, लेकिन उद्योग ने अंततः उन्हें छोड़ दिया। अपने जीवन के अंतिम समय में वह एक साधारण घर में रहती थीं, खराब रहने की स्थिति और बीमारी से जूझती रहीं।