लखनऊ: उत्तर प्रदेश की सियासत में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के 'PDA' (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले पर भरपूर निशाना साधा है। गुरुवार को बसपा के संस्थापक और दिवंगत नेता कांशीराम की पुण्यतिथि पर लखनऊ के कांशीराम स्मारक पर आयोजित महारैली में मायावती ने सपा पर तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा कि सपा सत्ता में रहते दलितों को भूल जाती है, लेकिन चुनावों के समय 'PDA' का नारा लगाकर उनका वोट लूटने की कोशिश करती है।
दरअसल, मायावती का यह बयान एक बड़ा संकेत है कि उनकी पार्टी बसपा अपने कोर वोट बैंक, खासकर जाटव समुदाय को अपने पाले में और मजबूती से करने की कोशिश कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या जाटव वोट अभी भी 'हाथी' के प्रति वफादार हैं? पिछले चुनावों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह वफादारी डगमगा रही है। आज हम समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर बसपा के उतार-चढ़ाव में जाटवों की भूमिका क्या रही है और कांशीराम जयंती के मौके पर हुई रैली में आई भीड़ क्या बताती है।
फर्श से अर्श, और फिर फर्श तक कैसे पहुंची बसपा?
बसपा की स्थापना 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज, यानी कि दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को सशक्त बनाने के लिए की थी। उत्तर प्रदेश में यह पार्टी 2007 के विधानसभा चुनावों में चरम पर पहुंची थी, जब उसे 30.43 फीसदी वोट मिले और 206 सीटें हासिल हुईं। यह आंकड़ा बताता है कि उस समय बसपा ने न सिर्फ जाटवों बल्कि गैर-जाटव दलितों, मुसलमानों और कुछ ऊपरी जातियों को जोड़ने में कामयाबी हासिल की थी। यह सफलता 'सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय' के नारे पर टिकी थी, जहां मायावती ने सभी वर्गों को साथ लेकर सरकार बनाई।
लेकिन उसके बाद ग्राफ नीचे आने लगा। 2012 के विधानसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर गिरकर 25.95 फीसदी रह गया। चुनाव आयोग के मुताबिक, पार्टी को 80 सीटें मिलीं, लेकिन यह 2007 के मुकाबले करीब 5 फीसदी की बड़ी गिरावट थी। सत्ता में रहते हुए विकास के वादे पूरे न होना और भ्रष्टाचार के आरोपों तो इसकी बड़ी वजह माना गया। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा को यूपी में एक भी सीट नहीं मिली, और वोट शेयर 19.77 फीसदी रहा। यह आंकड़ा बताता है कि दलित वोट बंट गए, खासकर गैर-जाटव समुदाय भाजपा की ओर खिसक गया।

2017 के विधानसभा चुनावों में थोड़ी सुधार हुआ, वोट शेयर 22.23 फीसदी हो गया और 19 सीटें हासिल हुईं। वहीं, 2019 के लोकसभा में सपा के साथ गठबंधन से भी फायदा हुआ और करीब 19 फीसदी के वोट शेयर के साथ पार्टी को 10 सीटें मिलीं। लेकिन इसके बाद सबसे बड़ा झटका 2022 के विधानसभा चुनावों में लगा। चुनाव आयोग के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, बसपा का वोट शेयर घटकर 12.88 फीसदी रह गया, और यह 1993 के बाद का सबसे निचला स्तर था। पार्टी को इन चुनावों में सिर्फ एक सीट मिली, और वह थी रसड़ा विधानसभा सीट। कुल वोटों में से बसपा को लगभग 38 लाख वोट मिले, जो 2017 के 66 लाख से आधे से भी कम थे।
2024 के लोकसभा चुनावों में हालात और बिगड़े। अब बसपा का वोट शेयर 9.39 फीसदी रह गया और पार्टी इन चुनावों में एक भी सीट नहीं जीत पाई। बसपा के वोट शेयर के ये आंकड़े बताते हैं कि पार्टी का वोट अब सिर्फ कोर ग्रुप तक सिमट गया है।
बसपा के साथ कैसा रहा है जाटव वोटरों का रिश्ता?
अब बात जाटव वोटों की। यूपी में दलित आबादी करीब 21 फीसदी है, जिसमें जाटव सबसे बड़ा समुदाय हैं। माना जाता है कि उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में लगभग 9 से 11 फीसदी जाटव समुदाय के लोग हैं। मायावती खुद जाटव हैं, इसलिए यह बसपा का 'कोर वोट बैंक' माना जाता है। लेकिन क्या जाटव 'हाथी' के प्रति हमेशा वफादार रहे? आंकड़े कुछ और कहते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, 2017 में 87 फीसदी जाटवों ने बसपा को वोट दिया था, लेकिन 2022 में यह गिरकर 65 फीसदी रह गया। यानी की करीब 22 फीसदी जाटव वोटरों ने बसपा का साथ छोड़कर भाजपा या सपा की ओर रुख किया।

2024 के लोकसभा चुनावों में तो बसपा का जाटव वोट शेयर और नीचे आया, और माना जाता है कि जाटवों ने बड़ी संख्या में बीजेपी और सपा को भी वोट किया। इस बदलाव के पीछे एक बड़ी वजह तो यही नजर आती है कि बसपा की बार-बार हो रही हार ने जाटव युवाओं को निराश किया है। यही वजह है कि 2024 में चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी ने नगीना जैसी जाटव-बहुल सीट पर बसपा को चौथे नंबर पर धकेल दिया।
आसान शब्दों में कहें तो जाटव वोट धीरे-धीरे 'फ्लोटिंग' बनता गया है, कुछ बीजेपी के हिंदुत्व और विकास के नाम पर, कुछ सपा के PDA के नारे पर। लेकिन 40 साल से ऊपर के जाटव अभी भी मायावती के साथ हैं, क्योंकि उन्हें कांशीराम का बहुजन मिशन को याद है। इस तरह कहा जा सकता है कि जाटव वफादारी डगमगा रही है, लेकिन बसपा से उसका नाता पूरी तरह टूटा नहीं है। कांशीराम की पुण्यतिथि पर लखनऊ की रैली में गुरुवार को उमड़ी भारी भीड़ यही बताती है।

बसपा का उभार अखिलेश के लिए चिंता की बात क्यों?
लखनऊ में हुई बसपा की रैली 2021 के बाद मायावती का पहला बड़ा आयोजन था। दूर-दराज के इलाकों से आए बसपा कार्यकर्ताओं में इस बार फिर जोश नजर आया। लखनऊ में गुरुवार को जो नजारा दिखा वह बसपा की जड़ों को मजबूत करने का प्रयास दिखाता है। मायावती का अपने भतीजे आकाश आनंद के साथ मंच साझा करना भी संकेत देता है कि पार्टी युवा नेतृत्व की ओर बढ़ रही है। रैली में जुटी भीड़ एक तरफ निराशा से जूझती बसपा के लिए उत्साह का संचार कर सकती है तो दूसरी तरफ सपा की पीडीए को चुनौती दे सकती है।
एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगर यह ऊर्जा 2027 के विधानसभा चुनावों तक बनी रही, तो जाटव वोट वापस लौट सकता है। वरना, चंद्रशेखर जैसे नए चेहरे इसे और बांट देंगे। कुल मिलाकर, मायावती का यह दांव उत्तर प्रदेश में सियासत के मैदान को त्रिकोणीय बना सकता है। बसपा का दोबारा उभार सपा के लिए चिंता की बात होगी, और अखिलेश कभी नहीं चाहेंगे कि उनके PDA के नारे को डेंट लगे। अब यह देखने वाली बात होगी कि बसपा अपना यह जोश आने वाले कुछ सालों तक बरकरार रख पाती है या नहीं।



