Friday, March 29, 2024
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शीर्ष अदालत से मोदी सरकार को झटका, आलोक वर्मा CBI निदेशक पद पर बहाल, विपक्ष ने फैसला सराहा

CBI बनाम CBI विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने आकोल वर्मा को उनके अधिकारों से वंचित कर अवकाश पर भेजने के केन्द्र के फैसले को गलत बताकर वर्मा को बहाल कर दिया है। हालांकि, वो अभी भी बड़े फैसले नहीं ले पाएंगे।

IndiaTV Hindi Desk Edited by: IndiaTV Hindi Desk
Updated on: January 08, 2019 22:52 IST
Alok Verma- India TV Hindi
Alok Verma

नयी दिल्ली: केंद्र सरकार को मंगलवार को उस वक्त बड़ा झटका लगा जब उच्चतम न्यायालय ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक के पद पर बहाल कर दिया। न्यायालय ने वर्मा को सीबीआई निदेशक की शक्तियों से वंचित कर अवकाश पर भेजने का केंद्र सरकार का आदेश रद्द कर दिया। हालांकि, न्यायालय ने वर्मा के पर कतरते हुए साफ कर दिया कि बहाली के उपरांत सीबीआई प्रमुख का चयन करने वाली उच्चाधिकार समिति के उनकी शक्तियां छीनने के मुद्दे पर विचार करने तक वह कोई भी बड़ा नीतिगत फैसला करने से परहेज करेंगे। वर्मा का सीबीआई निदेशक के तौर पर दो वर्ष का कार्यकाल 31 जनवरी को समाप्त हो रहा है। विपक्ष ने इस फैसले की तारीफ करते हुए इसे मोदी सरकार के लिए ‘‘सबक’’ करार दिया जबकि सरकार ने इस निर्णय को ‘‘संतुलित’’ करार दिया। 

 
बहरहाल, वर्मा को शक्तियों और अधिकारों से वंचित करने की तलवार अब भी उनके सिर पर लटकी हुई है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि सीबीआई प्रमुख का चयन करने वाली उच्चाधिकार प्राप्त चयन समिति अब भी वर्मा से जुड़े मामले पर विचार कर सकती है, क्योंकि सीवीसी उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही है। चयन समिति को एक हफ्ते के भीतर बैठक बुलाने को कहा गया है। न्यायालय ने कहा कि कानून में अंतरिम निलंबन या सीबीआई निदेशक को हटाने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है। शीर्ष अदालत ने साफ कर दिया कि इस तरह का कोई भी फैसला चयन सहमति की सहमति लेने के बाद ही किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने 44 पेज के फैसले में वर्मा को उनकी शक्तियों से वंचित करने और संयुक्त निदेशक एम नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बनाए जाने संबंधी सीवीसी और कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के 23 अक्टूबर, 2018 के आदेशों को निरस्त कर दिया। 
 
पीठ ने अपने फैसले में कहा कि हम यह निर्देश देना उचित समझते हैं कि सीबीआई निदेशक वर्मा अपने पद पर बहाल होने पर समिति से ऐसी कार्रवाई या निर्णय लेने की अनुमति मिलने तक कोई भी बड़ा नीतिगत फैसला नहीं करेंगे और ऐसा करने से बचेंगे। यह फैसला प्रधान न्यायाधीश ने लिखा, लेकिन चूंकि आज वह उपस्थित नहीं थे इसलिए न्यायमूर्ति कौल ने यह निर्णय सुनाया। इसके साथ ही न्यायालय ने अपने फैसले में प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष (लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता) की सदस्यता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति को एक सप्ताह के भीतर बैठक करने के लिए भी कहा। उच्चाधिकार प्राप्त चयन समिति के फैसले के आधार पर वर्मा को 19 जनवरी 2017 को दो साल के लिए सीबीआई निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया था। इस बीच, कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी पार्टियों ने फैसले को सराहा। हालांकि, इस फैसले पर वर्मा की तरफ से फिलहाल कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। 
 
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता के तौर पर सीबीआई निदेशक का चयन करने वाली समिति में सदस्य के तौर पर शामिल मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि शीर्ष अदालत का फैसला मोदी सरकार के लिए एक ‘‘सबक’’ है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पत्रकारों से कहा कि वर्मा को रात एक बजे ‘‘पद से हटाया गया’’ था, क्योंकि वह राफेल विमान करार की जांच शुरू करने वाले थे। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार फ्रांस के साथ हुए अनुबंध की जांच से भाग नहीं सकते। न्यायालय के फैसले को ‘‘संतुलित’’ करार देते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि सीबीआई के दो वरिष्ठ अधिकारियों को छुट्टी पर भेजने का सरकार का निर्णय केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की अनुशंसा पर लिया गया था। उन्होंने इस कार्रवाई को “पूरी तरह वैध’’ बताया। उन्होंने कहा कि सरकार का फैसला पूर्णत: वैध था क्योंकि दोनों अधिकारी आपस में भिड़े हुए थे। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने शीर्ष अदालत के फैसले को ‘‘मोदी एवं उनके पद को सीधे तौर पर दोषी ठहराने वाला’’ करार देते हुए मांग की कि प्रधानमंत्री मोदी को नैतिक आधार पर अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। वहीं, आम आदमी पार्टी (आप), पीडीपी और राजद ने भी कहा कि अदालत का फैसला मोदी सरकार को दोषी ठहराता है। 
 
‘सीबीआई बनाम सीबीआई मामले’ के तौर पर चर्चित हुए इस मामले में सुनाए गए अपने फैसले में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने 23 अक्टूबर 2018 को सीवीसी और डीओपीटी के उस आदेश को दरकिनार कर दिया जिसके तहत वर्मा के सारे अधिकार छीन लिए गए थे और सीबीआई के संयुक्त निदेशक एम नागेश्वर राव से जांच एजेंसी के निदेशक का अंतरिम प्रभार संभालने को कहा गया था। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा, ‘‘हम यह एकदम स्पष्ट करते हैं कि इस अंतरिम अवधि के दौरान और इस आदेश के अनुसार सीबीआई निदेशक के रूप में आलोक कुमार वर्मा कोई नई पहल, जिसका कोई बड़ा नीतिगत या संस्थागत प्रभाव हो, के बगैर ही रोजमर्रा के काम तक खुद को सीमित रखेंगे।’’ वर्मा ने सरकार की ओर से उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजने और एक अंतरिम प्रमुख नियुक्त करने के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी। वर्मा की दलील थी कि सीबीआई प्रमुख का कार्यकाल दो साल का होता है और उन्हें उच्चाधिकार प्राप्त चयन समिति द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है। 
 
आलोक वर्मा का मसला जांच ब्यूरो के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के साथ हुए विवाद के इर्दगिर्द सिमटा हुआ था क्योंकि दोनों ही अधिकारियों ने एक-दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे। वर्मा ने उन्हें निदेशक के अधिकारों से वंचित कर अवकाश पर भेजने के निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी लेकिन अस्थाना ने शीर्ष अदालत से कोई राहत नहीं मांगी। बल्कि वह भ्रष्टाचार के आरोपों में जांच ब्यूरो द्वारा अपने खिलाफ दर्ज प्राथमिकी रद्द कराने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय पहुंचे थे। पीठ ने अपने फैसले में विनीत नारायण प्रकरण में दी गई अपनी व्यवस्था और इसके बाद कानून में किए गए संशोधन का जिक्र करते हुए कहा कि विधायिका की मंशा सीबीआई निदेशक के कार्यालय को हर तरह के बाहरी प्रभाव से पूरी तरह मुक्त रखने और सीबीआई की संस्था के रूप में निष्ठा और निष्पक्षता बरकरार रखने की रही है। 
 
शीर्ष अदालत द्वारा 1997 में विनीत नारायण प्रकरण में सुनाया गया फैसला देश में उच्च पदों पर आसीन लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से संबंधित था। पीठ ने दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान कानून के एक प्रावधान का भी जिक्र किया जिसके अनुसार चयन समिति की सहमति के बगैर सीबीआई निदेशक का तबादला नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने कहा कि विधायिका की मंशा इस तरह की स्थिति में सीबीआई निदेशक के खिलाफ सरकार को अंतरिम उपाय करने के लिए कोई अधिकार देने की नहीं थी। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि यदि ‘तबादला’ शब्द को सामान्य बोलचाल के नजरिए से समझा जाए और इसे एक पद से दूसरे पद पर भेजने तक सीमित रखा जाए तो इस तरह ‘समिति से पहले सहमति’ लेने की अनिवार्यता का प्रावधान विधायिका की ऐसी मंशा को निष्फल करता है। अदालत ने कहा कि यही कल्पना की गई है कि सीबीआई संस्था को हर तरह के बाहरी प्रभाव से दूर रखना जरूरी है ताकि वह जनहित में बगैर किसी भय और पक्षपात के प्रमुख जांच एजेंसी और अभियोजन एजेंसी की अपनी भूमिका निभा सके। 
 
न्यायालय ने कहा कि संस्थान के मुखिया, निदेशक को स्वतंत्रता और निष्ठा की अपने आप में एक मिसाल होना चाहिए जो उसे संसद की अपेक्षाओं के अनुरूप हर तरह के नियंत्रण और हस्तक्षेप से मुक्त रखना सुनिश्चित कर सके। पीठ ने कहा कि सभी प्राधिकारियों को जांच ब्यूरो के निदेशक के कामकाज में हस्तक्षेप करने से दूर रहना चाहिए। जांच ब्यूरो के निदेशक के खिलाफ कार्रवाई की आवश्यकता पड़ने जैसी स्थिति के बारे में पीठ ने कहा कि ऐसी आवश्यकता की पृष्ठभूमि में जनहित प्रमुख होना चाहिए और इस तरह की आवश्यकता को सिर्फ समिति की राय से ही परखा जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि संबंधित कानून में जांच ब्यूरो के निदेशक के अंतरिम निलंबन या पद से हटाने का प्रावधान नहीं है और ऐसा कोई भी निर्णय उच्चाधिकार प्राप्त चयन समिति की सहमति के बाद ही लिया जा सकता है। 

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