विश्व थैलेसीमिया दिवस (8 मई) के अवसर पर जे.पी. हॉस्पिटल के बोन मेरो ट्रांसप्लांट विभाग के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. पवन कुमार सिंह एवं डॉ. ईशा कौल ने कहा कि शिशु जन्म के पांच महीने की उम्र से ही थैलेसीमिया से ग्रस्त हो जाता है और उसे हर महीने रक्त ट्रांसफ्यूजन की जरूरत पड़ती है। थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चे एक निश्चित उम्र तक ही जीवित रह पाते हैं।
डॉ. पवन ने कहा, "महिलाओं एवं पुरुषों के शरीर में क्रोमोजोम की खराबी माइनर थैलेसीमिया होने का कारण बनती है। यदि दोनों ही मानइर थैलेसीमिया से पीड़ित होते हैं तो शिशु को मेजर थैलेसीमिया होने की संभावना बढ़ जाती है। जन्म के तीन महीने बाद ही बच्चे के शरीर में खून बनना बंद हो जाता है और उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।"
सिंह ने कहा, "सामान्य रूप से शरीर में लाल रक्त कणों की उम्र करीब 120 दिनों की होती है, लेकिन थैलेसीमिया के कारण लाल रक्त कणों की उम्र कम हो जाती है। इस कारण बार-बार शिशु को बाहरी रक्त चढ़ाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में अधिकांश माता-पिता बच्चे का इलाज कराने में अक्षम हो जाते हैं, जिससे 12 से 15 वर्ष की आयु में बच्चों की मृत्य हो जाती है। यदि सही से इलाज कराया भी गया तो भी 25 वर्ष व इससे कुछ अधिक वर्ष तक ही रोगी जीवित रह सकता है।"
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