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Mahakumbh 2025: वे संन्यासी जिन्हें नहीं होता किसी को छूने का अधिकार, इनके दर्शन के बिना अधूरा है कुंभ!

महाकुंभ में एक ऐसे संन्यासियों का अखाड़ा जमा हुआ है, जो न तो किसी को छू सकते हैं और न ही किसी को उनको छूने का अधिकार है। आइए जानते हैं इनके बारे में...

Written By: Shailendra Tiwari @@Shailendra_jour
Published : Jan 21, 2025 7:11 IST, Updated : Jan 21, 2025 7:11 IST
Mahakumbh 2025
Image Source : FB दंडी स्वामी

संगम तट पर लगे महाकुंभ में लाखों साधु-संत अपनी धुनी रमाए प्रभु की भक्ति में लीन हैं। इनमें नागा साधु, अघोरी, साधु, संत शामिल हैं। इन संतों में कई तरह के संन्यासी आए हुए हैं, जिन्हें लेकर कई तरह के रहस्य बने हुए हैं। जैसे नागा, अघोरी आदि। ऐसे ही एक संन्यासी हैं, जिन्हें दंडी स्वामी कहा जाता है। माना जाता है कि कुंभ में अगर इनके दर्शन नहीं किए तो तीर्थ का कोई मतलब नहीं है। इन स्वामियों का जीवन काफी कठिन होता है। इसके अलावा, इन्हें कोई नहीं छू सकता, इसकी अनुमति नहीं होती।

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नहीं होता छूने का अधिकार

महाकुंभ में दंडी संन्यासियों का अखाड़ा सेक्टर 19 में लगा हुआ है। इन संन्यासियों को छूने का अधिकार किसी को नहीं होता और न ही खुद को छूने देने का अधिकार होता है। इन संन्यासियों  की सबसे बड़ी पहचान उनका दंड होता है, इसे संन्यासी अपनी और परमात्मा के बीच की कड़ी मानते हैं, इस दंड को काफी पवित्र माना जाता है। दंडी शब्द जंगल में बने सर्पीले रास्ते को बताता है। इसलिए वह संन्यासी जो दंड लेकर हमेशा पैदल चलता रहता है या यात्रा करता है, उसे ही दंडी स्वामी कहा गया। 

शास्त्रों में यह दंड भगवान विष्णु का प्रतीक माना गया है, इसे ब्रह्म दंड भी कहा गया है। इस दंड को हर कोई धारण नहीं कर सकता। इस दंड को सिर्फ ब्राह्मण ही ग्रहण करते हैं, शास्त्रों के मुताबिक इसके अपने नियम हैं, जिसका पालन होने पर ही दंड धारण किया जा सकता है।

बन जाता है परमहंस

माना जाता है कि संन्यास का लक्ष्य मोक्ष ही है, यानी कि आध्यात्मिक मोक्ष की प्राप्ति के लिए सांसारिक मोक्ष जरूरी है। जो संन्यासी इन नियमों का पालन करते हुए 12 वर्ष बीता लेता है फिर वह अपनी दंडी फेंककर परमहंस बन जाता है। मनुस्मृति और महाभारत जैसे धर्मशास्त्रों में दंडियों के लक्षण और उनकी तपस्या के नियम बताए गए हैं। दंडी संन्यासी बनने के लिए संन्यासी को दंड धारण करना होगा, सिर के बालों को घुटाए रखना होगा, कुश के आसन पर ही बैठना होगा, चीरवसन और मेखलाधारण करना होगा। दंडी स्वामी शंकराचार्य बनाते हैं। शंकराचार्य के हाथ में बांस की डंडी या कपड़े से ढका दंड तो देखा ही होगा। माना जाता है कि यही संन्यासी आगे चलकर शंकराचार्य बनते हैं।

बिना दंडी के नहीं चल सकते

दंड को ये संन्यासी ढककर चलते हैं, ऐसा माना गया कि दंड की शुद्धता और सात्विकता इससे बरकरार रहती है। नियम है कि गाय की आवाज जितनी दूर जाती है, उससे ज्यादा बिना दंड के दंडी स्वामी नहीं चल सकते हैं। दंडी स्वामी को मृत्यु के बाद समाधि दी जाती है क्योंकि दीक्षा के दौरान है उनका पिंडदान आदि करवा दिया जाता है।

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