सिडनी: आजकल सोशल मीडिया पर हिंसक वीडियो तेजी से वायरल हो रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा असर युवाओं पर पड़ रहा है। हाल ही में अमेरिकी पॉलिटिकल इन्फ्लुएंसर चार्ली किर्क की यूटा वैली यूनिवर्सिटी में हुई गोलीबारी की खबर सबसे पहले सोशल मीडिया पर फैली। न्यूज चैनलों या वेबसाइट्स से पहले, खून-खराबे की रॉ फुटेज सीधे लोगों की फोन स्क्रीन पर पहुंच गई। इसमें न तो किसी एडिटर ने यह तय किया कि यह वीडियो दिखाना ठीक है या नहीं, न ही कोई चेतावनी दी गई। आइए, समझने की कोशिश करते हैं कि ऐसी रॉ फुटेज का सोशल मीडिया पर सीधे जाना क्यों खतरनाक है।
सोशल मीडिया पर किस तरह की हिंसा दिख रही है?
युवा, खासकर टीनएजर्स, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और एक्स जैसे प्लेटफॉर्म्स पर ज्यादा समय बिताते हैं। 2024 की एक यूके रिसर्च के मुताबिक, ज्यादातर टीनएजर्स ने अपने सोशल मीडिया फीड्स में हिंसक वीडियो देखे हैं। ये वीडियो स्कूल में होने वाली लड़ाइयों, चाकूबाजी, युद्ध की फुटेज या आतंकी हमलों तक के हो सकते हैं। ये सीन इतने रॉ और अचानक सामने आते हैं कि देखने वाले को संभलने का मौका तक नहीं मिलता। ऑस्ट्रेलिया की ई-सेफ्टी कमिश्नर ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से अपील की है कि वे बच्चों को ऐसी हिंसक सामग्री से बचाएं। उन्होंने कहा, 'सभी प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी है कि वे गैरकानूनी और नुकसानदायक कंटेंट को तुरंत हटाएं या उसकी पहुंच सीमित करें।'
बच्चों और युवाओं पर इसका कैसा असर होता है?
ऐसे वीडियो देखने का युवाओं पर गहरा असर पड़ता है। कुछ बच्चे इतने डर जाते हैं कि घर से बाहर निकलने से कतराने लगते हैं। रिसर्च बताती है कि हिंसक कंटेंट देखने से ट्रॉमा जैसे लक्षण हो सकते हैं, खासकर अगर यह हिंसा उनकी जिंदगी से जुड़ी हुई लगे। सोशल मीडिया न सिर्फ हिंसा को दिखाता है, बल्कि यह बुलिंग, गैंग वार, डेटिंग में हिंसा, और यहां तक कि खुद को नुकसान पहुंचाने जैसे मामलों को भी बढ़ावा देता है। इसके अलावा, बार-बार हिंसा देखने से युवाओं में 'डिसेंसिटाइजेशन' हो सकता है, यानी वे दूसरों के दुख-दर्द के प्रति कम संवेदनशील हो जाते हैं।
मीडिया में हिंसा का दिखना कोई नई बात नहीं
कम्युनिकेशन स्कॉलर्स की 'कल्टिवेशन थ्योरी' के मुताबिक, ज्यादा हिंसक कंटेंट देखने वाले लोग दुनिया को असल से ज्यादा खतरनाक समझने लगते हैं। इससे उनके रोजमर्रा के व्यवहार पर भी असर पड़ता है। मीडिया में हिंसा का दिखना कोई नई बात नहीं है। प्राचीन ग्रीक अपनी मिट्टी के बर्तनों पर युद्ध के दृश्य बनाते थे। रोमन लोग ग्लैडिएटर्स की कहानियां लिखते थे। क्रिमियन युद्ध की तस्वीरें सबसे पुरानी फोटोग्राफी में शामिल हैं। वियतनाम युद्ध को 'टेलीविजन युद्ध' कहा गया, जब हिंसा की तस्वीरें पहली बार लोगों के घरों में पहुंचीं। लेकिन तब भी एडिटर्स फुटेज को काटते-छांटते और उसे संदर्भ के साथ दिखाते थे।

सोशल मीडिया ने सबकुछ बदलकर रख दिया
सोशल मीडिया ने लोगों तक ऐसे दृश्यों के पहुंचने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया। अब युद्ध की फुटेज, जो फोन या ड्रोन से रियल टाइम में रिकॉर्ड होती है, बिना किसी एडिटिंग के TikTok या YouTube पर अपलोड हो जाती है। यह किसी आम वीडियो की तरह, बिना किसी संदर्भ के, लोगों के सामने आता है। 'वॉर इन्फ्लुएंसर्स' नामक लोग, जिन्हें पत्रकारिता की कोई ट्रेनिंग नहीं होती, युद्ध क्षेत्रों से अपडेट्स पोस्ट करते हैं। इससे खबर और ड्रामे की महीन रेखा धुंधली हो जाती है। यहां तक कि इजरायल की सेना 'थर्स्ट ट्रैप' जैसे तरीकों का इस्तेमाल करती है, जहां आकर्षक पोस्ट्स के जरिए प्रोपेगैंडा फैलाया जाता है।
सोशल मीडिया पर हिंसक कंटेंट से बचने के उपाय
कुछ आसान उपाय अपनाकर आप सोशल मीडिया पर हिंसक कंटेंट से बच सकते हैं:
- ऑटोप्ले बंद करें: इससे वीडियो अपने आप नहीं चलेंगे।
- म्यूट या ब्लॉक फिल्टर्स का इस्तेमाल: X और TikTok जैसे प्लेटफॉर्म्स पर आप कुछ खास कीवर्ड्स वाले कंटेंट को छिपा सकते हैं।
- हिंसक वीडियो की शिकायत करें: ऐसे वीडियो को रिपोर्ट करने से उनकी पहुंच कम हो सकती है।
- अपने फीड को क्यूरेट करें: भरोसेमंद न्यूज अकाउंट्स को फॉलो करें ताकि रैंडम हिंसक वीडियो कम दिखें।
- सोशल मीडिया से ब्रेक लें: यह इतना मुश्किल नहीं, जितना लगता है।
हालांकि ये कदम पूरी तरह कारगर नहीं हैं। सच तो यह है कि सोशल मीडिया यूजर्स का अपने फीड पर बहुत कम कंट्रोल होता है। एल्गोरिदम्स सनसनीखेज कंटेंट को बढ़ावा देते हैं। चार्ली कर्क की गोलीबारी के वायरल वीडियो इस बात का सबूत हैं कि प्लेटफॉर्म्स अपने यूजर्स, खासकर बच्चों, को हिंसक कंटेंट से बचाने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में सोशल मीडिया कंपनियों पर और सख्त नियम लागू करने की जरूरत है। (इनपुट: PTI - द कन्वर्सेशन)



