नई दिल्ली: मोदी सरकार अब पूरे देश में जाति जनगणना कराएगी। मूल जनगणना के साथ ही जाति से जुड़े आंकड़े भी इकट्ठे किए जाएंगे। कैबिनेट की बैठक में इस फैसले पर मुहर लग चुकी है। इसे मोदी सरकार का बड़ा दांव माना जा रहा है। यह फैसला ऐसे समय लिया गया है जब बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ महीने बाकी रह गए हैं। कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल जाति जनगणना की मांग को लेकर केंद्र सरकार पर हमलावर रुख अपनाए हुए थी और बिहार विधानसभा चुनाव में यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा भी बन सकता था। लेकिन उससे पहले केंद्र सरकार ने पूरे देश में जाति जनगणना कराने का फैसला लेकर कांग्रेस और आरजेडी को बिहार में तो बिहार में बड़ा झटका दिया ही है साथ ही इस मुद्दे को लेकर केंद्र को घेरने वाले अन्य सियासी दलों के मंसूबों पर भी पानी फेर दिया है। इन विपक्षा दलों का एक अहम मुद्दा उनके हाथ से फिसलता नजर आ रहा है।
दरअसल, जनगणना का विषय संविधान के अनुच्छेद 246 की केंद्रीय सूची की क्रम संख्या 69 पर अंकित है और यह केंद्र का विषय है। हालांकि, कई राज्यों ने सर्वे के माध्यम से जातियों की जनगणना की है। जहां कुछ राज्यो में यह कार्य सूचारू रूप से संपन्न हुआ है वहीं कुछ अन्य राज्यों ने राजनैतिक दृष्टि से और गैरपारदर्शी ढंग से सर्वे किया है। हाल में बिहार में जाति जनगणना का मुद्दा भी सुर्खियों में रहा। बिहार में जब जाति जनगणना कराई गई उस समय वहां नीतीश कुमार की अगुवाई में महागठबंधन की सरकार थी। इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि देश में जाति जनगणना क्यों जरूरी है, देश में इसकी कितनी जरूरत है और इसके क्या-क्या फायदे हैं? इससे पहले जरा इसके इतिहास पर नजर डाले लें।
जाति जनगणना का इतिहास
जाति जनगणना के इतिहास की बात करें तो जब देश ब्रिटिश शासन के अधीन था उसी समय 1871-72 में पहली बार भारत में व्यवस्थित जनगणना शुरू हुई। इसमें जाति, धर्म, और अन्य सामाजिक विशेषताओं को दर्ज किया गया। इस जनगणना का उद्देश्य प्रशासनिक सुविधा के साथ सामाजिक संरचना को समझाना था और टैक्स वसूली के लिए भी जाति का डेटा जमा करना जरूरी था। डेटा शासकीय नीतियों जैसे भर्ती और भूमि प्रबंधन में भी उपयोगी था। देश में आखिरी जाति जनगणना 1931 में हुई थी। इस जनगणना में जाति से जुड़े विस्तृत आंकड़े जमा किए गए। आजादी के बाद 1951 की जनगणना में केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आंकड़े लिए गए। बाद में एक नीतिगत बदलाव करते हुए सरकार ने जाति जनगणना को बंद कर दिया। इसे सामाजिक विभाजन के लिए खतरा बताया गया था।
1990 के दशक से OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण और सामाजिक न्याय के मुद्दों के कारण जाति जनगणना की मांग बढ़ी। कई राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन इसके पक्ष में थे। 2011 में भारत सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (Socio-Economic and Caste Census) आयोजित की। यह स्वतंत्र भारत में पहला प्रयास था जिसमें जाति आधारित डेटा एकत्र करने की कोशिश की गई। हालांकि, इसके आंकड़ों में त्रुटियां और असंगतियां होने के कारण इसे पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किया गया। बिहार में 2022-23 में राज्य सरकार ने स्वतंत्र रूप से जाति आधारित सर्वेक्षण किया। इस सर्वे के परिणामों ने राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की बहस को और तेज किया।
जाति जनगणना क्यों जरूरी है?
- दरअसल जाति जनगणना सामाजिक, आर्थिक और नीतिगत कारणों से महत्वपूर्ण है। सामाजिक कारणों की बात करें तो जाति जनगणना से विभिन्न जातियों की आबादी और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक डेटा मिलता है। जाति जनगणना के समर्थकों का तर्क है कि इस तरह की जनगणना से विभिन्न जातियों की जनसंख्या का आकार निर्धारित होगा और इन संख्याओं का उपयोग सरकारी नौकरियों, भूमि और संपत्ति में प्रत्येक जाति को आनुपातिक हिस्सा प्रदान करने के लिए किया जा सकता है।
- जाति जनणना से सरकार को नीति निर्माण में मदद मिलती है। सरकार को यह समझने में सहायता मिलती है कि कौन से समुदाय विकास में पीछे हैं, ताकि उनके लिए लक्षित योजनाएं बनाई जा सकें। उदाहरण के लिए, शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के अवसरों को बेहतर करने के लिए डेटा आधारित निर्णय लिए जा सकते हैं।
- जाति जनगणना से संसाधनों का उचित वितरण करने में मदद मिलती है। जाति आधारित डेटा से संसाधनों और अवसरों का समान वितरण सुनिश्चित होता है, जिससे सामाजिक असमानता कम हो सकती है।
- देश में जाति व्यवस्था के चलते कई समुदायों ने ऐतिहासिक रूप से भेदभाव झेला है। जाति जनगणना से इन समुदायों की स्थिति का आकलन कर सुधारात्मक कदम उठाए जा सकते हैं।
- जाति जनगणना के समर्थक इसे सामाजिक समानता के लिए जरूरी मानते हैं, जबकि विरोधी इसे सामाजिक तनाव और राजनीतिक दुरुपयोग का कारण बताते हैं। डेटा संग्रह की जटिलता और गोपनीयता के मुद्दे भी चुनौतियां हैं।

जाति जनगणना के फायदे
- जाति आधारित डेटा वंचित और पिछड़े समुदायों की सटीक स्थिति (शिक्षा, रोजगार, आय) को उजागर करता है। यह अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करता है।
- बिना अपडेटेड डेटा के नीतियां अनुमानों पर आधारित होती हैं, जो प्रभावी नहीं हो सकतीं। जैसे OBC की वास्तविक आबादी और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में 1931 के बाद कोई व्यापक डेटा नहीं है। इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार योजनाओं को लक्षित करने के लिए सटीक आंकड़े चाहिए।
- वर्तमान आरक्षण नीतियां (जैसे OBC के लिए 27%) पुराने अनुमानों पर आधारित हैं। जाति जनगणना से यह स्पष्ट हो सकता है कि क्या ये कोटा पर्याप्त हैं या इन्हें संशोधित करने की जरूरत है। यह "क्रीमी लेयर" की पहचान और समीक्षा में भी मदद कर सकता है।
- भारत में जाति और आर्थिक स्थिति के बीच गहरा संबंध है। जनगणना से यह समझने में मदद मिलेगी कि कौन से समुदाय सबसे अधिक हाशिए पर हैं। 1931 के बाद कोई व्यापक जाति जनगणना नहीं हुई। 90 वर्षों से अधिक पुराने डेटा पर निर्भरता नीतियों को अप्रभावी बनाती है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, और सामाजिक गतिशीलता के कारण जातीय संरचना में बदलाव आया है, जिसे समझने के लिए नया डेटा जरूरी है।
जाति जनगणना के खिलाफ तर्क
- अक्सर जाति जनगणना के खिलाफ यह तर्क दिया जाता है कि इससे सामाजिक विभाजन का खतरा है। जाति आधारित जनगणना सामाजिक तनाव को बढ़ा सकता है और जातिगत पहचान को और मजबूत कर सकता है, जो राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक हो सकता है। कुछ लोग मानते हैं कि यह जातिवाद को कम करने के बजाय उसे स्थायी बना सकता है।
- वहीं जाति जनगणना से मिले जाति डेटा का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की रणनीति के लिए किया जा सकता है, जिससे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ सकता है। कुछ क्षेत्रीय दलों की मांग को राजनीतिक लाभ के लिए प्रेरित माना जाता है।
- जाति जनगणना के लिए तकनीकी और प्रशासनिक चुनौतियां भी हैं। देश में हजारों जातियां और उप-जातियां हैं, जिनके नाम और वर्गीकरण में क्षेत्रीय भिन्नताएं हैं। इनका सटीक और एकसमान डेटा संग्रह आसान नहीं है। यह काफी जटिल है।