Friday, April 19, 2024
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Gyanvapi Case: कैसे मंदिर की दीवारों पर खड़ी की गई ज्ञानवापी मस्जिद? अभी क्यों मचा है बवाल? जानें शुरू से लेकर अब तक की पूरी कहानी

Gyanvapi Case: ऐसी मान्यता है कि औरंगजेब ने ही मंदिर के एक हिस्सा को तुड़वाकर उसकी जगह मस्जिद का निर्माण करवाया था। जबकि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 14वीं सदी के शर्की सुल्तान ने मंदिर को ध्वस्त कराकर मस्जिद बनवाई। मान्यताएं ये भी हैं कि अकबर ने ही विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद को बनावाया था।

Shilpa Written By: Shilpa
Updated on: September 13, 2022 15:05 IST
Kashi Vishwanath Temple-Gyanvapi Mosque Case- India TV Hindi
Image Source : INDIA TV Kashi Vishwanath Temple-Gyanvapi Mosque Case

Highlights

  • मंदिर के अवशेषों पर बनाई गई मस्जिद
  • कई बार तोड़ा गया काशी विश्वनाथ मंदिर
  • मुगलों ने बार-बार मंदिर तोड़ने का आदेश दिया

Gyanvapi Case: उत्तर प्रदेश में वाराणसी की जिला अदालत ने सोमवार को ज्ञानवापी शृंगार गौरी मामले की विचारणीयता पर सवाल उठाने वाली मुस्लिम पक्ष की याचिका खारिज कर दी और कहा कि वह देवी-देवताओं की दैनिक पूजा के अधिकार के अनुरोध वाली याचिका पर सुनवाई जारी रखेगी, जिनके विग्रह ज्ञानवापी मस्जिद की बाहरी दीवार पर स्थित हैं। जिला न्यायाधीश ए.के. विश्वेश ने अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद समिति की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मामले की विचारणीयता पर सवाल उठाया गया था। मुस्लिम पक्ष ने अदालत के इस फैसले को उच्‍च न्‍यायालय में चुनौती देने की घोषणा की है। इसके साथ ही काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है।

वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वाराणसी के काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद मामले में सोमवार को अगली सुनवाई की तारीख 28 सितंबर, 2022 निर्धारित की है। अदालत में मौजूद एक वकील ने बताया कि जिला न्यायाधीश ने दोनों पक्षों के वादियों और उनके अधिवक्‍ताओं समेत 32 लोगों की मौजूदगी में 26 पन्‍नों का आदेश 10 मिनट के अंदर पढ़कर सुनाया। अदालत ने गत 24 अगस्‍त को इस मामले में अपना आदेश 12 सितंबर तक के लिए सुरक्षित रख लिया था। मुस्लिम पक्ष के वकील मेराजुद्दीन सिद्दीकी ने कहा कि जिला अदालत के इस निर्णय को उच्‍च न्‍यायालय में चुनौती दी जाएगी। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानपानी मस्जिद का ये विवाद सदियों पुराना है। इस विवाद को लेकर पहली बार 213 साल पहले दंगे हुए थे। 

 
विस्तार से जानिए पूरा विवाद-

इससे पहले कि हम ज्ञानपानी मस्जिद के बारे में बात करें, हमें काशी विश्वनाथ मंदिर के टूटने की घटनाओं को जान लेना चाहिए। इस मंदिर को बाहरी आक्रांताओं ने एक बार नहीं बल्कि कई बार तोड़ा है और हर बार इसे दोबारा भी बनाया गया है।

1194 ईसवी- पहली बार कुतुबुद्दीन ऐबक ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त किया। वह मोहम्मद गौरी का कमांडर था। इसके करीब 100 साल बाद गुजरात के रहने वाले व्यापारी ने मंदिर को दोबारा बनवाया।  

1447 ईसवी- अब मंदिर पर दूसरा हमला हुआ। इसे जौनपुर के सु्ल्तान महमूद शाह ने अंजाम दिया था। उसने मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। हालांकि 1585 ईसवी में राजा टोडरमल ने मंदिर का दोबारा निर्माण करवाया। वह अकबर के नौ रत्नों में से एक थे।

1642 ईसवी- एक बार फिर मंदिर पर खतरा बढ़ा, शाहजहां ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का आदेश पारित कर दिया था। लेकिन हिंदुओं के विरोध के बाद प्रमुख मंदिर बच गया। हालांकि काशी के बाकी 63 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया।

1669- 18 अप्रैल के दिन शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ने का आदेश दे दिया था। जो आज भी बकायदा कोलकाता की एशियाटिक लाइब्रेरी में रखा हुआ है। जो मंदिर तोड़े जाने का सबसे बड़ा सबूत है। फिर इसी साल सितंबर महीने में मंदिर को तोड़ दिया गया और उसकी जगह मस्जिद बनवा दी गई। इसके लगभग 111 साल बाद मराठा शासक अहिल्या बाई होलकर ने 1780 में मौजूदा काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया।

औरंगजेब ने मंदिर की जगह मस्जिद बनवाई 

ऐसी मान्यता है कि औरंगजेब ने ही मंदिर के एक हिस्सा को तुड़वाकर उसकी जगह मस्जिद का निर्माण करवाया था। जबकि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 14वीं सदी के शर्की सुल्तान ने मंदिर को ध्वस्त कराकर मस्जिद बनवाई। मान्यताएं ये भी हैं कि अकबर ने ही विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद को बनावाया था। ऐसा कहा जाता है कि अकबर ने ये काम नए मजहब दीन-ए-इलाही के तहत किया था। काशी विश्वनाथ मंदिर और मस्जिद के बीच में एक 10 फीट का कुआं है, जिसे ज्ञानवापी कहा जाता है। इसी के नाम पर मस्जिद का नाम पड़ा। इस कुएं को लेकर स्कंद पुराण में कहा गया है कि भगवान शिव ने खुद लिंगाभिषक के लिए अपने त्रिशूल से इस कुएं का निर्माण करवाया था।

ये भी कहते हैं कि भगवान शिव ने अपनी पत्नी पार्वती जी को इसी स्थान पर ज्ञान दिया था। इसी वजह से जगह का नाम ज्ञानवापी या फिर ज्ञान का कुआं पड़ गया। अगर आम लोगों और किंवदंतियों की मानें, तो यह कुआं सीधे पौराणिक काल से जुड़ा हुआ है।  
मस्जिद के भीतर दिखती है मंदिर की झलक

मस्जिद को भीतर से देखा जाए, तो उसमें मंदिर की झलक साफ दिखाई पड़ती है। वैसे तो यह हिंदू और मुस्लिम आर्किटेक्चर का मिश्रण है। लेकिन अगर मस्जिद के गुंबद के नीचे देखें, तो वहां मंदिर के स्ट्रक्चर जैसी दीवार दिखाई देती है। इसी को मंदिर का हिस्सा माना जाता है, जो औरंगजेब ने तुड़वाया था। वहीं मस्जिद के प्रवेश द्वार की बात करें, तो वह दिखने में ताजमहल के द्वार जैसा है। इसमें मुगलकालीन छाप छोड़ने वाले तीन गुंबद हैं। इसपर 71 मीटर की ऊंची मीनारें हैं, जो सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र रहती हैं। हालांकि मस्जिद का एक टावर साल 1948 में बाढ़ की वजह से ढह गया था। 

अभी क्यों हो रहा है विवाद?

ताजा विवाद इस बात को लेकर है कि मस्जिद को मंदिर के अवशेष के ऊपर बनाया गया है। इस पर आजादी से पहले से ही विवाद हो रहे हैं। 1809 में मस्जिद परिसर के बाहर नमाज पढ़ने को लेकर विवाद के बाद सांप्रदायिक दंगे हुए थे। ऐसा भी कहा जाता है कि तब हिंदुओं ने काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के बीच में छोटा स्थल बनाने की कोशिश की थी। इसके बाद 1991 में वाराणसी कोर्ट में याचिका दायर कर ज्ञानवापी परिसर में पूजा करने के साथ ही मस्जिद को ढहाने की मांग की गई। मंदिर के पुरोहितों के वंशजों ने याचिका में बताया कि मूल मंदिर 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। लेकिन औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर मस्जिद बनवा दी। याचिका में कहा गया है कि ये जमीन हिंदू समुदाय को दी जानी चाहिए क्योंकि यहां मस्जिद का निर्माण मंदिर के अवशेषों के इस्तेमाल से हुआ है। याचिका में साफ कहा गया कि इस मामले में प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 लागू नहीं होगा क्योंकि मस्जिद मंदिर के अवशेषों पर बनी है।

1998 में अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत की सुनवाई पर रोक लगाई। ये मस्जिद की देखरेख करने वाली कमेटी है, जो इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंची थी। कमेटी ने कहा कि इस मामले में प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 लागू होता है, इसलिए विवाद में कोई फैसला नहीं लिया जा सकता। कमेटी ने कहा कि एक्ट के तहत इसकी मनाही है। जिसके चलते निचली अदालत की सुनवाई पर रोक लगाई गई। इसके बाद 2019 में वाराणसी जिला अदालत में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का आर्कियोलॉजिकल सर्वे कराने की मांग वाली याचिका दायर हुई। याचिका को विजय शंकर रस्तोगी ने दायर किया था। हाईकोर्ट के स्टे के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद 2019 में ही वाराणसी कोर्ट ने मामले में दोबारा सुनवाई शुरू की। 

साल 2020 में मस्जिद कमेटी ने ज्ञानवापी परिसर का एएसआई सर्वे कराने की मांग वाली याचिका का विरोध किया। इसी साल विजय शंकर रस्तोगी ने निचली अदालत से मामले पर दोबारा सुनवाई शुरू करने की मांग की। इसके लिए उन्होंने हाईकोर्ट द्वारा स्टे को नहीं बढ़ाए जाने का हवाला दिया। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद वैसे तो आपस में सटे हुए हैं लेकिन यहां आने जाने के रास्ते अलग-अलग हैं। मंदिर में रखा प्रमुख शिवलिंग 60 सेंटीमीटर लंबा और 90 सेंटीमीटर परिधि में है। प्रमुख मंदिर के आसपास कई छोटे-छोटे मंदिर हैं। मंदिर में 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने तीन सोने के गुंबद लगवाए थे, जो आज भी मौजूद हैं। ऐसा कहा जाता है कि मुगलों ने जब यहां आक्रमण किया, तो शिवलिंग को कुएं में छिपा दिया गया था। इस ज्ञानवापी कुएं का जिक्र स्कंद पुराण में भी है। 

ताजा विवाद किस वजह से हो रहा है?

इस मामले में ताजा विवाद ज्ञानवापी परिसर में श्रंगार गौरी और अन्य देवी देवताओं की पूजा को लेकर हो रहा है। पांच महिलाओं ने 18 अगस्त को परिसर में मौजूद देवी देवताओं की रोज पूजा करने की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। फिलहाल साल में एक बार ही यहां पूजा होती है। सभी महिलाओं का नेतृत्व दिल्ली की रहने वाली राखी सिंह कर रही हैं, जबकि बाकी महिलाओं के नाम सीता साहू, मंजू व्यास, लक्ष्मी देवी और रेखा पाठक है, जो बनारस से हैं। इसी साल 26 अप्रैल को वाराणसी जिला अदालत ने परिसर में वीडियोग्राफी और सर्वे का आदेश दिया था। ताकि याचिकाकर्ताओं के दावों का सत्यापन किया जा सके। मुस्लिम पक्ष ने कोर्ट के आदेश का खूब विरोध किया। जिसके चलते 6 मई को शुरू होना वाला 3 दिन के सर्वे का काम अधूरा ही रह गया। अब मामले में 10 मई को दोबारा सुनवाई होगी। जिसमें हो सकता है कि कोर्ट ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे के लिए नई तारीख का ऐलान कर दे। 

जहां हिंदू पक्ष का कहना है कि मां श्रंगार देवी के अस्तित्व के प्रमाण सत्यापित करने के लिए सर्वे होना बेहद जरूरी है। तो वहीं दूसरी ओर मुस्लिम पक्ष सर्वे के लिए मस्जिद के भीतर जाने को गलत बता रहा है।

प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट क्या है?

यह कानून उपासना स्थलों को बदले जाने से रोकता है। इसके मुताबिक, 15 अगस्त, 1947 को उपासना स्थल जिस धार्मिक रूप में थे, उसी में रहेंगे। इन्हें बदला नहीं जाएगा। मतलब साफ है कि अगर आजादी के समय किसी जमीन पर मस्जिद थी, तो उसे मंदिर में नहीं बदला जा सकता। फिर बेशक उससे पहले वहां कुछ भी रहा हो। प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट, 1991 कानून 11 जुलाई, 1991 को लागू हुआ था।

कानून के बारे में सुप्रीम कोर्ट के वकील और 'अयोध्याज राम टैम्पल इन कोर्ट्स' के लेखक की क्या है राय?

इस कानून की संक्षेप में व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील और 'अयोध्याज राम टैम्पिल इन कोर्ट्स' पुस्तक के लेखक विराग गुप्ता ने इंडिया टीवी को बताया कि धार्मिक स्थानों की स्थिति 15 अगस्त 1947 के अनुसार सुनिश्तित करने के लिए संसद ने साल 1991 में कानून बनाया था। उसमें अयोध्या के रामजन्मभूमि मन्दिर को शामिल नहीं किया था, जिसकी वजह से बाबरी मस्जिद विवाद का अंत हो सका। 
कानून की धारा 3 के अनुसार कोई भी व्यक्ति धार्मिक स्थानों में बदलाव नहीं कर सकता। कानून की धारा-4 (3) (बी) के अनुसार धार्मिक स्थानों के बारे में चल रहे सभी वाद, अपील और विधिक कार्यवाहियों का अदालतों या न्यायाधिकरणों से इस कानून के अनुसार फैसला होगा। 
कानून की धारा-6 के अनुसार जो भी व्यक्ति धारा-3 का उल्लघंन करे उसे 3 साल की सजा या  जुर्माना हो सकता है। मथुरा या अन्य धार्मिक स्थानों पर चल रहे विवादों का अंत करने के लिए अदालती आदेश के पहले संसद के कानून में बदलाव जरूरी है।

इस कानून में तीन साल की सजा का प्रावधान

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के अनुसार प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। अगर कोई भी इस कानून का उल्लघंन करता है तो उसे तीन साल की सजा निर्धारित की गई है। कानून की धारा 4 (3) के अनुसार कोई भी वाद अपील या अन्य विधिक कार्यवाही इस कानून के अनुसार निर्धारित होगी और इस कानून के उल्लंघन करने पर सेक्शन 6 के अनुसार 3 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। 

अयोध्या से मथुरा कोर्ट तक गूंज

प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट का जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि विवाद का फैसला सुनाते वक्त भी किया था। पांच जजों की बेंच ने 1045 पन्नों के फैसले में इसके बारे में कहा था कि यह भारत के सेक्यूलर चरित्र को मजबूत करता है। 30 सितंबर 2020 को को मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान से सटी ईदगाह मस्जिद को हटाने के केस को खारिज करते हुए सिविल जज सीनियर डिविजन कोर्ट ने भी इस कानून का जिक्र किया था। कोर्ट का कहना था कि 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के तहत सभी धर्मस्थलों की स्थिति 15 अगस्त 1947 वाली रखी जानी है। इस कानून में सिर्फ अयोध्या मामले को अपवाद रखा गया था।

क्यों बनाना पड़ा यह कानून?

इस कानून के पीछे बड़े विवादों से बचने की एक मंशा थी। बात 1991 की है, जब बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद अपनी ऊंचाई पर था। विश्व हिंदू परिषद और दूसरे हिंदू धार्मिक संगठनों का कहना था कि सिर्फ रामजन्मभूमि ही नहीं, 2 और धार्मिक स्थलों से मस्जिदों को हटाने का काम किया जाएगा। बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह। हालांकि कुछ हिंदू संगठन लगातार यह बात भी कहते रहते थे कि देशभर में ऐसी जितनी भी जगहें हैं, सबको मस्जिदों से आजाद कराया जाएगा।

ऐसे माहौल में केंद्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार हरकत में आई। सितंबर 1991 में एक खास कानून लाया गया। इसमें हर धार्मिक स्थल को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में ही बनाए रखने की व्यवस्था की गई। इस कानून से अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद को इसलिए भी अलग रखा गया, क्योंकि यह केस लंबे वक्त से कोर्ट में था और दोनों ही पक्षों से बातचीत करके मसले का हल निकालने की भी कोशिशें हो रही थीं।

बिल पास करते वक्त क्या-क्या कहा गया? 

उस समय की नरसिम्हा राव सरकार ने इस कानून को बनाने की पीछे मंशा धार्मिक सद्भाव बरकरार रखना और सेक्युलर स्वभाव को जिंदा रखना बताया। तत्कालीन गृह मंत्री एस.बी चाव्हाण ने लोकसभा में 10 सितंबर 1991 को अपने वक्तव्य में कहा था कि हम इस बिल को देश में प्यार, भाईचारे और सद्भाव की महान परंपरा को आगे बढ़ाने वाले एक कदम की तरह देखते हैं। कांग्रेस ने 1991 के चुनाव घोषणापत्र में भी ऐसा कानून बनाने की बात कही थी। उस वक्त संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी इस बिल का जिक्र आया था।

भाजपा ने किया था इस कानून का कड़ा विरोध

उस वक्त भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी और उसने इस कानून का काफी विरोध किया था। उसके अनुसार, यह राज्यों के अधिकार में दखलंदाजी का मामला था। तब केंद्र सरकार ने अपनी खास ताकतों के इस्तेमाल की बात कह दी थी।

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