Thursday, April 25, 2024
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गुलाबो सिताबो में 'मिर्जा' और 'बांके' तो कठपुतली निकले, असली डोर किसी और के हाथ में थी

गुलाबो सिताबो को रिश्तों के लिहाज से देखा जाए तो बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है।

Vineeta Vashisth Written by: Vineeta Vashisth
Updated on: June 12, 2020 15:11 IST
शूटिंग के दौरान डायरेक्टर शुजीत सरकार संग अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना- India TV Hindi
Image Source : INSTAGRAM: @TARANADARSH शूटिंग के दौरान डायरेक्टर शुजीत सरकार संग अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना

रात बारह बजे अमेजन पर रिलीज हुई गुलाबो सिताबो को रिश्तों के लिहाज से देखा जाए तो बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है। फिल्म में 'लालच' करने वाले लगभग हर शख्स का एक जैसा हश्र दिखाया गया है। हवेली की चाहत रखने वाले 78 साल के मिर्जा के साथ जो हुआ, वो दर्शकों को अच्छा लगा हो लेकिन दुखदायी है। सच मानिए मिर्जा ने जो किया वो उसकी उम्र का लगभग हर बुजुर्ग कर रहा है। मेट्रो शहरों में करोड़ों ऐसे बुजुर्ग दंपति हैं जो जीवन की संध्या में अपने घरों के किराए से आ रहे पैसे पर निर्भऱ हैं। वो घर, जो उनके जीने का एकमात्र जरिया है, उसे लेकर उनकी पजेसिवनेस को गलत क्यों कहना। 

मिर्जा ने भले ही नाटकीय ढंग से अपनी बेगम की हवेली हड़पने की कोशिश की हो लेकिन आप देखिए 80 फीसदी भारतीय यही तो कर रहा है। रजिस्ट्री की भारी भरकम रकम से बचने के लिए भारत में बीवियों के नाम पर मकान खरीदे जाते हैं। इसके दो फायदे होते आए हैं। एक तो बीवी खुश, मालकिन होने की खुशी में वो पति और परिवार के लिए एक्स्ट्रा समर्पण देती है, दूसरा रजिस्ट्री अगर बीवी के नाम पर हो तो छूट मिलती है। 

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बुढ़ापे में चवन्नी अठन्नी को मोहताज बुजुर्ग अगर अपने घर का जायज किराया बढ़ाना चाह रहा है तो क्या गलत कर रहा है। क्या उसे हक नहीं कि अपनी जिंदगी की शान को आराम और सहूलियत से गुजारने का। मेरे आस पास ऐसे कई बुजुर्ग दंपत्ति हैं जिनका घर ही घर के किराए से चल रहा है। खासकर दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में नौकरी के लिए आने वाली जनता की बाढ़ इन्हीं घरों में किराएदार के रूप में शरण पाती है।

हां, मिर्जा बेगम के मरने की दुआ करता है, वो चीज चुभती है,जीवन की सांझ में हमसफर के साथ बैठकर गुफ्तगू करने, सुख दुख बांटने की बजाय ऐसा स्वार्थ कचोटता है। लेकिन फिर भी उसके अंदर इंसानियत है, वो किराएदार की बच्ची के बीमार पड़ने पर किराया लिए बिना लौट रहा है। 

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अब एक बुजुर्ग जिसके पास खाने को नहीं है, वो उस हवेली को क्या थाली में लेकर चाटेगा, जो उसके और उसकी बेगम के लिए फायदे का सौदा हो सकती है। क्या किराएदार मिर्जा के दर्द को नहीं समझते, महज तीस रुपए वो किराए के नहीं देना चाह रहे। ऐसे में जब हाथ पैर चलने मुश्किल हो रहे हैं, लुढ़कते पिढ़कते एक बुजुर्ग से जैसा व्यवहार किराएदार, बेगम साहिबा करते हैं,  वो कहां तक जायज ठहराया जा सकता है। लेकिन ये दुनिया है, यहां बुजुर्गों को ऐसे ही ट्रीट किया जाता है। 

बुड्ढे हो गए हो, जहां जो जैसे हो, बस पड़े रहे, मरने का इंतजार करते रहो, या तो मर जाओ या अगर अंदर जरा सी भी जिजीविषा बची है तो कुछ पाने की हिम्म्त कर लो। ऐसा किया तो लोग कहेंगे, कब्र में पैर लटके हैं और इन्हें चोंचले सूझ रहे हैं। मिर्जा के तौर तरीके भले ही गलत रहे, स्वार्थ की श्रेणी में आते रहे लेकिन मिर्जा ने वही किया जो उसकी उम्र का एक बूढ़ा अपनी बची हुई जिंदगी को आराम देने के लिए करता। 

फिल्म के कथानक को बारीकी से देखा जाए तो मिर्जा से बड़ा स्वार्थी और लालची किरदार तो बेगम का है। अपनी पुश्तेनी हवेली से प्यार के चलते पहले उस शख्स को नकारा जो उसे सच में उसे प्यार करता था। फिर एक 17 साल छोटे बेरोजगार शख्स से शादी की, जिसे जीवन में कभी खुलकर जीने नहीं दिया। पैसे पैसे को मोहताज रखा। अंत में अपनी ही हवेली के प्यार में फिर पहले वाले के पास पहुंच गई। लेकिन भारत में औरत, मां और बीवी, बेटी को स्वार्थी चश्मे से देखने पर पाप जो लगता है। खैर स्वार्थ है जनाब, जब सिर पर चढ़े तो औरत मर्द नहीं देखता। यही दस्तूर है।

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जिस दौर में मिर्जा औऱ बेगम का निकाह हुआ होगा, तब बेगम ने ही मिर्जा को चुना होगा, (अब मिर्जा की इतनी हैसियत कहां कि इतनी बड़ी हवेली की मालकिन को चुन पाता।) क्या स्वार्थ रहो होगा बेगम का, एक बेरोजगार कमउम्र शौहर को चुनने का। चुपचाप पड़ा रहेगा, ज्यादा जीदारी नहीं दिखाएगा, अंगूठे के नीचे रहेगा। शादी में औकात तभी देखी जाती है जब रिश्ते को सौदे की तरह ट्रीट करने की बात जेहन में हो। बेगन में यही सौदा किया था, प्यार नहीं करती मिर्जा से, हवेली से प्यार था तभी एक स्टैंप लगा ली निकाह की, ताकि निजी औऱ सामाजिक तौर पर उंगली न उठे।

फिल्म में मिर्जा दरअसल एक नासमझ कबूतर है जो किसी दूसरे पंछी के सोने के अंडे को ये समझकर से रहा है कि कभी कबूतर का अंडा निकलेगा और उसका भला हो जाएगा। ऐसे करोड़ों कबूतर हैं दुनिया में जो इस चाह में लगे हैं, चाह करना बुरा नहीं है, नासमझी भरी चाह करना गलत है, जो मिर्जा ने कर डाली। 

आप गौर कीजिए, पूरी फिल्म में मर्द विलेन दिखे हैं लेकिन असल में खलनायकी औरतों के जरिए समझाई गई है। बेगम से लेकर गुड्डो (बांके की बहन) नोटिस बोर्ड लगाने की लालसा रखने वाली सरकारी कर्मचारी, बांके से प्रेम के बाद अमीर लड़के से शादी करके बांके को जलील करने पहंची उसकी प्रेमिका, जहां खोजेंगे वहीं खलनायक की बजाय खलनायिका दिखेगी।

अब जीवन जीने की जद्दोजहद जब उठती है तो आदमी आदर्श को चुइंगम बनाकर नहीं चबाता। वो लोहे के चने चबाता है जो इस फिल्म में लगभग हर किरदार चबा रहा है। सरवाइवल आफ फिटेस्ट की थ्योरी को बिलकुल सहज औऱ सटीक तरीके से फिल्म दिखाती है...अंत में मिर्जा के हाथ लगता है नीला गुब्बारा, क्योंकि कठपुतली तो कोई और ही नचा रहा था।

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