Tuesday, April 30, 2024
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बर्फबारी ने फिर से लौटा दी 'जमीन की जन्नत' की रौनक

श्रीनगर: हर तरफ बर्फ, नुकीली बर्फीली चट्टानें, नीचे उड़ते हंस और ठंड को दूर करने के लिए एक साथ बैठे परिवार; कश्मीर में इस बार वह सभी कुछ है जो यहां शरद ऋतु को शानदार

IANS IANS
Published on: January 20, 2017 7:31 IST
Kashmir- India TV Hindi
Kashmir

श्रीनगर: हर तरफ बर्फ, नुकीली बर्फीली चट्टानें, नीचे उड़ते हंस और ठंड को दूर करने के लिए एक साथ बैठे परिवार; कश्मीर में इस बार वह सभी कुछ है जो यहां शरद ऋतु को शानदार बनाता है। अप्रत्याशित रूप से छह महीने लंबे शुष्क मौसम से पैदा हुआ डर बर्फ के साथ घुलकर बह चुका है। कश्मीर वह बन गया है जिसके लिए वह जाना जाता है, जिसकी वजह से लोग इसके मुरीद हो जाते हैं। भारी बर्फबारी ने पहाड़ों के चिरस्थायी जलाशयों को लबालब भर दिया है। यहां तक कि मैदानी इलाके भी इस बार औसत दर्जे की बर्फबारी के गवाह बने हैं।

किसानों और सेब उत्पादकों ने राहत की सांस ली है। शुष्क मौसम अब उनके भविष्य को चुनौती नहीं दे रहा है। झील-तालाब, नदी-नाले, झरने सभी शान से बह रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो कड़ाके की ठंड में आंशिक रूप से जम गए हैं। पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के एक वरिष्ठ इंजीनियर ने कहा, "बर्फबारी से पहले झेलम नदी इतने कम पानी के साथ बह रही थी, जितना बीते 40 साल में देखने को नहीं मिला था। जलापूर्ति के अन्य स्रोत भी लगभग सूख चुके थे। ग्रामीण इलाकों में पानी का संकट विशेष रूप से था। ऊपर वाले का शुक्र है, अब हालात बदल गए हैं।"

हाड़ जमा देने वाली ठंड और बर्फबारी अपने साथ कुछ दिक्कतें लेकर आती है। रास्ते बंद हो जाते हैं, बिजली गुल हो जाती है, स्वास्थ्य संबंधी, खासकर त्वचा संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। लेकिन, जो लोग घाटी के जीवन को जानते हैं, उन्हें पता है कि यह कुछ समय की दिक्कतें हैं।

उत्तरी कश्मीर के रहने वाले हाजी सिदिक (78) कहते हैं, "बिना बर्फ के कैसा कश्मीर? यह तो वैसे ही हुआ कि बागीचे में बिना फूल के रहो। मुझे आज भी अपने बचपन का जाड़ा याद है। चिल्लई कलां (21 दिसम्बर से शुरू होने वाली बेहद ठंडी 40 दिन की अवधि) में हमारा गांव सभी कुछ से कट जाता था।"

उन्होंने कहा, "उन दिनों कोई भी ठंड या भूख से नहीं मरता था, हालांकि तब आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं। गांव के घर में एक गाय, कुछ भेड़, कुछ मुर्गियां, अनाज, दालें और सूखी सब्जियां हुआ करती थीं। कश्मीर हर तरह से आत्मनिर्भर हुआ करता था। बाहर से कुछ नहीं आता था। न दूध, न मटन, न चिकन। कम था, लेकिन जीवन के लिए जरूरी भर का होता था।"

जिंदगी कदमों पर भले ठिठक जाती थी, लेकिन रुकती नहीं थी। एक-दूसरे से कटे इलाकों में किस्सा सुनाने वाले पहुंचते थे। बच्चे ही नहीं, बड़े भी इनके इर्द-गिर्द बैठकर कहानियां सुनते थे।

अवकाश प्राप्त शिक्षक गुलाम नबी (82) ने बताया, "किस्सागो अपनी कला का माहिर होता था। वह अपने सुनने वालों को परियों के देश में ले जाता था जहां राजकुमार, दानवों से लड़कर उन्हें परास्त करता था। हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत होती है-यह बुनियादी नैतिक सबक हमने इन्हीं किस्सा सुनाने वालों से सीखा था।"

इस साल भी स्थानीय लोग कड़ाके की ठंड का सामना कर रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि इस बर्फीले शरद के बाद बहार और गर्मी के मौसम में लाखों फूल खिलेंगे।

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