
संन्यासी योद्धाओं के पराक्रम को देखते हुए पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में राष्ट्र-ध्वज और धर्म-ध्वज को अलग कर दिया गया। धर्म-ध्वज को ज्यादा संवेदनशील माना गया और इसे रक्षा के लिए अखाड़ों को सौंप दिया गया। जबकि, राष्ट्र ध्वज को राजा ने अपने पास रखा। बाद के हमलों में राष्ट्र-ध्वज के झुकने की स्थिति तो कई बार बनी लेकिन संन्यासियों ने धर्म-ध्वज को नहीं झुकने दिया।
धर्म-ध्वजा रक्षा किए जाने के सम्मान में राजाओं ने अपनी सम्पदा एक दिन के लिए ही सही, सन्तों के हवाले कर दी। आम लोगों ने राजा के बाद पहली बार किसी को ऐसे वैभव के साथ देखा। इसी के चलते इस स्नान को ‘शाही’ स्नान नाम दिया गया।
स्वामी चिन्मयानंद बताते हैं कि शाही स्नान कुंभ के मौके पर साधु-सन्तों का नागरिक अभिनंदन था। राजा अपनी सारी सम्पदा को देकर यह साबित करता था कि राज्य में संन्यासियों, बैरागियों का स्थान बहुत ऊंचा है। उनके सामने राजा की अपनी हैसियत भी कुछ नहीं है।
बाद के समय में सन्तों के लिए शाही स्नान में शामिल होना एक महत्त्वपूर्ण घटना हो गया। शाही स्नान के क्रम को लेकर कई सदियों तक अखाडों के बीच संघर्ष हुए। करीब 200 साल पहले अंग्रेज सरकार ने सात संन्यासी अखाड़ों के शाही स्नान का क्रम तय किया। यह क्रम अब भी जारी है।