Friday, April 26, 2024
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‘पाताल लोक’ का बहाना और वेब सीरीज़ को सेंसर करने की बेमानी बहस

हिन्दी दर्शक वर्ग में वेब सीरीज़ की चर्चा ‘सैक्रेड गेम्स’ से शुरु हुई जिसका दूसरा संस्करण भी आ चुका है, फिर आयी ‘मिर्जापुर’ और अब ‘पाताल लोक’। 

Raj Shekhar Tripathi Written by: Raj Shekhar Tripathi @im_rajshekhar
Updated on: May 26, 2020 18:33 IST
पाताल लोक, paatal lok- India TV Hindi
Image Source : INSTAGRAM/ANUSHKA SHARMA 'पाताल लोक' पर नहीं थम रहे हैं विवाद

वेब सीरीज़ ‘पाताल लोक’ जबर्दस्त चर्चा में है। मगर इस चर्चा के बहाने एक और बहस फिर से तेज़ हो गयी है। ओवर द टॉप ( ओटीटी ) प्लेटफ़ॉर्म्स को रेगुलेट करने की। ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म्स यानि जहां ये वेब सीरीज़ इंटरनेट के ज़रिए देखी जा सकती हैं। ये प्लेटफॉर्म्स दरअसल अब तक किसी तरह के सेंसर से आज़ाद हैं, टीवी और सिनेमा के रेगुलेशन्स यानि बंदिशें इन पर लागू नहीं हैं। इसका नतीजा ये है कि इन प्लेटफ़ॉर्म्स पर जो कंटेट दिखाया जा रहा है उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो आप सपरिवार नहीं देख सकते, और उससे भी अहम ये कि कथित तौर पर ‘भावनाएं आहत’ होने के कथित भय से भी ये मुक्त हैं। इसका एक फायदा तो ये है कि बहुत सारा ‘सोशियो-पोलिटिकल’ कंटेट भी यहां आसानी से परोसा जा पा रहा है। जो आमतौर पर विवादास्पद हो सकता है और टीवी या सिनेमा के जरिए तो इसका सार्वजनिक प्रदर्शन कतई आसान न होता।

अब तक एक तर्क ये था कि ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स व्यक्तिगत मनोरंजन के लिए हैं। देखने वाला इन्हें अपने पर्सनल कम्प्यूटर और स्मार्ट फोन पर देख रहा है। तो कंटेट को और उस पर बनायी जाने वाली राय को दर्शक के व्यक्तिगत विवेक पर छोड़ दिया गया। मगर सवाल है क्या क्रिएटर्स (पाताल लोक के लेखक को यही खिताब दिया गया है, क्योंकि उनकी भूमिका सामान्य पटकथा लेखक से बड़ी है) इस विवेक के तर्क की आड़ लेकर जरूरत से ज्यादा मनमानी कर रहे हैं ?

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हिन्दी दर्शक वर्ग में वेब सीरीज़ की चर्चा ‘सैक्रेड गेम्स’ से शुरु हुई जिसका दूसरा संस्करण भी आ चुका है, फिर आयी ‘मिर्जापुर’ और अब ‘पाताल लोक’। ऐसा नहीं है कि बीच में और कुछ आया ही नहीं ‘पंचायत’ नाम की एक बेहद साफ सुथरी और मनोरंजक सीरीज़ भी हमने अभी देखी है। मगर चर्चा तो हमेशा उसी की होती है जिसमें कुछ ग्रे या डार्क होता है, उस लिहाज से सैक्रेड गेम्स, मिर्जापुर और पाताल लोक में माल बहुत है। ये तो आलोचक भी मानेंगे कि पाताल लोक की पूरी कहानी ही हाल के घटनाक्रमों से उठायी गयी है। ऐसे में पाकिस्तान की जेलों में कथित फॉहिशी (अश्लीलता) की सजा काटने वाला सआदत हसन मंटो याद आता है। उसका बयान याद आता है- “ज़माने के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ़ नहीं हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये और अगर आप इन अफसानों को बरदाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है”

paatal lok is on trigger Redundant debate about censoring web series ‘पाताल लोक’ का बहाना और वेब सीर

Image Source : INSTAGRAM/@ANUSHKASHARMA
 ‘पाताल लोक’ 

लेकिन अगर दर्शक के व्यक्तिगत विवेक की आड़ लेकर वेब सिरीज निर्माताओं को‘अति’ की इजाजत नहीं दी जा सकती तो , तो मंटो की आड़ लेकर बोल्ड कंटेंट परोसने की मंशा को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।

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माफ़ करिए, कहानी की डिमांड पर वल्गर मसाला अब और नहीं चलेगा। ये जुमला इतना घिस चुका है कि अब बोल्ड सीन के सवाल भी हिरोइनों से नहीं पूछे जाते और वो भी अब जवाब में कम से कम ये जुमला नहीं इस्तेमाल करतीं। और ये सच है कि वेब सीरीज़ में अतियां हो रही हैं। बल्कि उन्हें गालियों और जुगुप्सित यौन व्यवहार (सेक्शुअल परवर्जन) का पर्याय बना दिया गया है। मसलन अपनी तमाम अच्छाइयों और बेहतरीन ‘स्टोरी लाइन’ के बावजूद ‘पाताल लोक’ में जितनी गालियां हैं उसकी आधी से भी काम चल जाता। कुछ आपत्तिजनक सीन्स निश्चित तौर पर प्रतीकात्मक हो सकते थे। 

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तो सवाल है कि क्या इसी तर्क पर ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स को सेंसर के अधीन ले आया जाए ? क्या उसे रेगुलेट करने के लिए वल्गैरिटी का लांछन ही पर्याप्त है ? मत भूलिए कि इस देश में सिनेमा को सेंसर से बाहर करने की बहस भी लंबे समय से चली आ रही है। दर्शक और फिल्म के बीच सेंसर क्यों हो ये सवाल पुराना है। यूं भी सेंसर एक औपनिवेशिक हथियार था जो आया था आज़ादी के पहले के सिनेमा के `पॉलिटिकल कंटेंट’ को रेगुलेट करने के लिए। बड़े फिल्मकारों का तर्क रहा है, जो हद तक ठीक भी है कि हम फिल्म बड़े दर्शक वर्ग के लिए बनाते हैं। परिवार के साथ देखने के लिए बनाते हैं, उसमें गैरजरूरी  वल्गैरिटी क्यों ठूंसेंगे ! फिल्म A सर्टिफिकेट के साथ न रिलीज़ हो इसे लेकर निर्माता और सेंसर बोर्ड की जंग कई बार लंबी खिंचती देखी गयी है। ज़ाहिर है अगर ‘सी ग्रेड’ निर्माताओं के एक छोटे वर्ग को छोड़ दें तो आमतौर पर अच्छा फिल्मकार खुद विवाद से बचना चाहता है। तो फिर सवाल ये है कि ये कंट्रोवर्सियल वेब सीरीज़ बनाने वाले क्या कर रहे हैं? इसमें एक नाम अनुराग कश्यप का लिया जा सकता है, ‘सैक्रेड गेम्स’ उन्हीं की पेशकश थी।

सच कहें तो उनकी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ भी वेबसीरीज़ ही होती, अगर उस वक्त तक ओटीटी प्लेटफॉर्म्स इतने सक्रिय होते। यहीं वो सूत्र छिपा है कि ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स का भविष्य क्या होगा या क्या होना चाहिए ? दरअसल ये एक विकसित होता प्लेटफॉर्म है जिसे इंडियन साइके (भारतीय चेतना) के मुताबिक आकार लेना बाक़ी है। मगर ये होगा बड़ी तेज़ी से, इसका सबूत है अमिताभ बच्चन अभिनीत शूजीत सरकार की ‘गुलाबो-सिताबो’। लॉक डाउन के चलते इसे 12 जून को ओटीटी पर ही रिलीज़ किया जा रहा है। अब ‘विक्की डोनर’ और ‘पीकू’ जैसी शानदार और साफसुथरी मनोरंजक फिल्में देने वाले शूजीत के क्रेडेंशियल्स चेक करने की तो जरूरत नहीं है, बल्कि अभी से घरों में ‘गुलाबो-सिताबो’ का बेसब्री से इंतजार है। तकरीबन हर मध्यमवर्गीय परिवार में आज स्मार्ट टीवी है और भला हो लॉक डाउन का कि वक्त काटने का ये भी एक जरिया बना।

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Image Source : SCREENGRAB
 ‘पाताल लोक’ 

‘पाताल लोक’ की इतनी चर्चा के पीछे भी लॉक डाउन का अहम रोल है, मगर ये भी समझिए कि ज्यादातर घरों में पूरा परिवार इसे एक साथ देखने का सुख तो नहीं ही ले सका। ये फीड बैक निर्माताओं तक भी पहुंचते हैं....लिहाज़ा, जो लोग गालियों और वल्गैरिटी को बेव सीरीज का अनिवार्य हिस्सा मानते हैं, सोचना तो उन्हें भी पड़ेगा। आखिर उन्हें भी सोचना होगा कि उनका कंटेट एक नौजवान सिर्फ अपने लैपटॉप पर नहीं, पूरा परिवार 40 इंच के टीवी पर कैसे एक साथ देख सके ? ‘गुलाबो-सिताबो’तो देखी जाएगी भाई, और बीच-बीच में चाय बिस्किट वाले इंटरवल भी लिए जाएंगे।

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निश्चित तौर पर एक खेमे से ये मांग उठती रहेगी कि ओटीटी प्लेटफार्म्स को रेगुलेट किया जाए, वेब सीरीज को सेंसर के अधीन लाया जाए। मगर फिलहाल ये मांग राजनीति प्रेरित और स्वार्थ प्रेरित ज्यादा लगती है। सूचना प्रसारण मंत्री को उकसा कर चेतावनी दिलवा दी जाती है, मगर शुक्रगुजार होना चाहिए जावडेकर साहब का कि उन्होंने निर्माताओं को सेल्फ रेगुलेशन की ही नसीहत पहले दी। मत भूलिए की बाज़ार हमारे समय का सबसे बड़ा रेगुलेटर है, जितना ज्यादा कन्ज्यूमर उतना बड़ा बाजार, जितने ज्यादा दर्शक उतना क़ामयाब प्लेटफॉर्म, क़ामयाब सीरीज़। इसलिए आश्वस्त रहिए ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स का आने वाले कल उम्मीदों से भरा है। उसके क्रिएटर्स खुद को रेगुलेट करना भी सीख लेंगे, वर्ना बाज़ार तो सिखाने के लिए है ही। हां, अनुराग कश्यप जैसे रहेंगे तो ‘डार्क कंटेट’ भी आता रहेगा, रोकने की जरूरत उसे भी नहीं है, दर्शक को पता है उससे‘ डील’ कैसे करना है।

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