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आज ही के दिन 24 दिसंबर 2002 को कड़कड़ाती ठंड के बीच दिल्ली की फिजाओं में एक अलग ही उत्साह था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब शाहदरा स्टेशन से तीस हजारी के लिए पहली रेड लाइन मेट्रो को हरी झंडी दिखाई, तो वह सिर्फ एक ट्रेन की शुरुआत नहीं थी, बल्कि दिल्ली के एक नए युग का उदय था। देखते ही देखते 8 किलोमीटर के उस छोटे से सफर ने आज सैंकड़ों किलोमीटर का जाल बिछाकर दिल्ली और NCR को एक सूत्र में पिरो दिया है। आज जब हम इस लाइफलाइन का जन्मदिन मना रहे हैं, तो आइए जानते हैं दिल्ली मेट्रो के बारे में ऐसी 10 अनसुनी बातें, जो आप नहीं जानते-
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दिल्ली मेट्रो की ट्रेनों को स्टार्ट करने के लिए किसी चाबी की जरूरत नहीं होती। इसे एक खास कोड और बटन के जरिए सक्रिय किया जाता है। ड्राइवर के केबिन में लगे डैशबोर्ड पर सिर्फ एक जॉयस्टिक होता है, जिससे ट्रेन की गति नियंत्रित होती है।
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दिल्ली मेट्रो भारत की पहली ऐसी संस्था है जो कचरे से बनी बिजली का उपयोग करती है। गाजीपुर में स्थित 'वेस्ट-टू-एनर्जी' प्लांट से पैदा होने वाली बिजली का एक हिस्सा दिल्ली मेट्रो को सप्लाई किया जाता है।
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अगर सुरंग के अंदर मेट्रो खराब हो जाए या बिजली कट जाए, तो यात्रियों को निकालने के लिए ट्रेन के आगे और पीछे के हिस्से में इमरजेंसी दरवाजे होते हैं। ये दरवाजे नीचे की तरफ खुलकर एक सीढ़ी बन जाते हैं, जिससे यात्री सीधे पटरियों के बीच बने सुरक्षित रास्ते पर उतर सकते हैं।
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हर सुबह जब मेट्रो सेवा शुरू होती है, तो पहली ट्रेन को 'स्वीपिंग ट्रेन' कहा जाता है। इसे सामान्य से कम रफ्तार पर चलाया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि रात भर में पटरियों पर कोई बाधा, पत्थर या तकनीकी खराबी तो नहीं आई है।
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दिल्ली मेट्रो के ब्लू लाइन (यमुना बैंक के पास) पर कुछ ऐसे हिस्से हैं, जहां ट्रेन की पटरियों के नीचे खास रबड़ के पैड लगाए गए हैं। ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि पास में स्थित ऐतिहासिक इमारतों (जैसे पुराने मंदिर या स्मारक) को ट्रेन के कंपन से नुकसान न पहुंचे।
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जमीन के नीचे जब आप सफर करते हैं, तो आपको ताजी हवा कैसे मिलती है? अंडरग्राउंड स्टेशनों के बीच में बड़े-बड़े 'वेंटिलेशन शाफ्ट' होते हैं, जो बाहर से ताजी हवा खींचते हैं और अंदर की गर्म हवा बाहर निकालते हैं। ये शाफ्ट सड़क किनारे ऊंचे टावरों की तरह दिखाई देते हैं, जिन्हें लोग अक्सर बिजली का खंभा समझ लेते हैं।
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जैसे हवाई जहाज में एक 'ब्लैक बॉक्स' होता है, जो दुर्घटना के समय सारी जानकारी देता है, वैसे ही दिल्ली मेट्रो की हर ट्रेन में एक 'इवेंट रिकॉर्डर' लगा होता है। यह ट्रेन की स्पीड, ब्रेक लगाने का समय और तकनीकी खराबी का पूरा डेटा रिकॉर्ड करता है।
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सर्दियों या बारिश के दौरान जब पटरी पर ओस या पानी की वजह से फिसलन बढ़ जाती है, तो मेट्रो के पहियों के पास लगे बॉक्स से अपने आप बारीक रेत पटरी पर गिरती है। यह रेत पहियों और पटरी के बीच घर्षण बढ़ा देती है, ताकि इमरजेंसी ब्रेक लगाने पर ट्रेन फिसले नहीं।
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दिल्ली मेट्रो के कई स्टेशनों पर छत के ऊपर सौर पैनल लगे हुए हैं, जिनसे पैदा होने वाली बिजली का उपयोग स्टेशन की लाइटें और एस्केलेटर चलाने में किया जाता है।
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दिल्ली मेट्रो की ट्रेनों में 'रीजेनरेटिव ब्रेकिंग' तकनीक का इस्तेमाल होता है। जब ड्राइवर ब्रेक लगाता है, तो काइनेटिक एनर्जी बिजली में बदल जाती है और वापस पावर ग्रिड में चली जाती है। इससे DMRC को सालाना करोड़ों रुपयों की बिजली की बचत होती है।