बिहार की सियासत पिछले कुछ सालों से गठबंधनों, जातिगत समीकरणों और हैरान कर देने वाले सियासी दांव-पेंच की वजह से चर्चा में रही है। यहां कई बार ऐसा हुआ है जब चुनावों के बाद सत्ता की चाभी छोटी पार्टियों के हाथ में आई है और उन्होंने किंगमेकर की भूमिका निभाई है। 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद रामविलास पासवान के हाथ में भी कुछ ऐसी ही चाभी आई थी जिसके बाद उनके दांव ने लालू प्रसाद यादव की 15 साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंका था। आज उनके बेटे चिराग पासवान भी उसी राह पर चलने की कोशिश करते दिख रहे हैं। अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या वह अपने पिता की तरह किंगमेकर बनना चाहते हैं या फिर उनके दिमाग में कुछ और ही चल रहा है। आज हम इन्हीं कुछ सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे।
2005 में रामविलास ने कैसे चित किया लालू को?
बिहार में लालू प्रसाद यादव का राज 1990 से चला आ रहा था। उन्होंने मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण बनाकर पिछड़ी और अल्पसंख्यक जातियों को एकजुट किया था। लेकिन चारा घोटाले जैसे भ्रष्टाचार के आरोपों और 'जंगलराज' की छवि ने उनकी सरकार को कमजोर कर दिया। 2005 के विधानसभा चुनावों में किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिल पाया। उन चुनावों में एनडीए (बीजेपी-जदयू) को 88 सीटें मिलीं, आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन को 56, जबकि रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) ने 29 सीटें जीती थीं। LJP के पास उन चुनावों में किंगमेकर बनने का मौका था।

रामविलास पासवान, जो दलित समुदाय के बड़े नेता थे, ने लालू को समर्थन देने से इनकार कर दिया। उन्होंने शर्त रखी कि या तो कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री बनेगा या फिर सरकार ही नहीं बनेगी। लालू ने मुस्लिम उम्मीदवार अब्दुल गफ्फार का नाम सुझाया, लेकिन पासवान ने इसे खारिज कर दिया। नतीजा? विधानसभा भंग हो गई, और अक्टूबर 2005 में नए चुनाव हुए। इस बार NDA ने 143 सीटें जीतीं, JDU के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, और लालू का राज का खात्मा हो या। इन चुनावों में पासवान की LJP को सिर्फ 10 सीटें मिलीं, लेकिन लालू सत्ता से बाहर हो गए और बिहार में नया दौर शुरू हुआ।
पिता के निधन के बाद चिराग ने की है नई शुरुआत
रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने बॉलीवुड से सियासत में एंट्री ली थी। 2014 में वह जमुई से सांसद बने, और 2019 में उन्होंने लोकसभा चुनावों में फिर से अपना परचम लहराया। अक्तूबर 2020 में अपने पिता की मौत के बाद चिराग ने एलजेपी की कमान संभाली। लेकिन कुछ समय बाद ही परिवार में ही फूट पड़ गई। चिराग के चाचा पशुपति कुमार पारस ने विद्रोह कर लिया, और पार्टी दो हिस्सों में बंट गई। चिराग ने लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) नाम से नई पार्टी बनाई, जो पासवान समुदाय (बिहार की 5.3% आबादी) के वोट बैंक पर टिकी है।

2020 के बिहार चुनाव चिराग के लिए टेस्टिंग ग्राउंड बने। उन्होंने NDA से नाता तोड़ लिया, लेकिन बीजेपी से 'भाईचारा' दिखाते रहे। उन्होंने 2020 के विधानसभा चुनावों में JDU को नुकसान पहुंचाने की भरपूर कोशिश की और इसमें बहुत हद तक कामयाब भी रहे। हालांकि जिन 137 सीटों पर उनकी पार्टी चुनाव लड़ी, उनमें से एक ही सीट जीत पाई। वहीं, 34 सीटों पर चिराग की पार्टी ने JDU को नुकसान पहुंचाया। 2020 के विधानसभा चुनावों में NDA की जीत हुई लेकिन नीतीश की पार्टी कुल मिलाकर तीसरे नंबर पर खिसक गई। चिराग पासवान को 'वोट काटवा' कहा गया, लेकिन उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव में 5 में से 5 सीटें जीतीं, जो उनकी बिहार की सियात में उनकी ताकत दिखाता है।
2025 के चुनावों में अहम साबित हो सकते हैं चिराग
अब नवंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए चिराग फिर मैदान में हैं। जून 2025 में आरा में रैली कर उन्होंने ऐलान किया कि 'मैं चुनाव लड़ूंगा, लेकिन सीट जनता चुनेगी।' चिराग पासवान सामान्य (अनारक्षित) सीट से लड़ने की बात कर रहे हैं, जो दलित वोटबैंक से बाहर निकलने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है। वह NDA में 'जीतने लायक' करीब 40 सीटें मांग रहे हैं, जबकि बीजेपी 25 देने को तैयार है। मीडिया रिपोर्ट्स में उनके और बीजेपी के बीच ब्रह्मपुर और गोविंदगंज जैसी सीटों पर विवाद की बात कही जा रही है। हालांकि चिराग का कहना है कि सीटों को लेकर उनकी कोई डिमांड नहीं है, वह सिर्फ 'बिहार फर्स्ट और बिहारी फर्स्ट' चाहते हैं। इस बार बिहार में 6 और 11 नवंबर को वोटिंग होगी, जबकि 14 नवंबर को नतीजे आएंगे।
चिराग के हालिया कदमों को देखकर लग रहा है कि उनकी निगाहें 'किंगमेकर' की भूमिका पर हैं, ठीक अपने पिता की तरह। अगर NDA कमजोर हुई तो चिराग के 20-25 विधायकों के हाथ में सरकार की चाभी आ सकती है। चिराग शायद यह भी सोच रहे हों कि नीतीश कुमार की उम्र और सेहत को देखते हुए बीजेपी उन्हें सीएम फेस के रूप में देख सकती है, हालांकि एक्सपर्ट इसकी संभावना न के बराबर बताते हैं। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी से गठबंधन की अफवाहें भी चल रही हैं, लेकिन उनमें कोई खास दम नजर नहीं आ रहा है।
बिहार की सियासत में दांव पर है चिराग का भविष्य
रामविलास पासवान ने 2005 में दिखा दिया था कि छोटी पार्टियों का दांव कैसे बड़ी पार्टियों को हैरान कर सकता है। चिराग उसी फॉर्मूले को दोहराने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। इसके तहत वह अपने वोट बैंक का इस्तेमाल कर एनडीए को मजबूत तो करेंगे, लेकिन अपनी शर्तों पर। अगर वे 20-30 सीटें जीत गए, तो उनका किंगमेकर बनना तय है। लेकिन अगर दांव उल्टा पड़ा, तो उनके ऊपर 'वोट काटवा' का टैग फिर से लग सकता है। बिहार के वोटर इस बार विकास, रोजगार और जाति से ऊपर उठकर फैसला लेने की कोशिश करते नजर आ सकते हैं। ऐसे में चिराग की महत्वाकांक्षा बिहार की राजनीति को नया मोड़ दे सकती है। अब आने वाले चुनावों में क्या होगा, इस सवाल का जवाब तो भविष्य के गर्भ में है।



