Germany And Italy Stand On Palestinian State: हाल ही में कई यूरोपीय देशों ने फलस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी है। यह कदम ना केवल पश्चिम एशिया की राजनीति पर असर डालता है, बल्कि यूरोप की एकता और उसकी विदेश नीति पर भी सवालिया निशान खड़े करता है। खासकर तब, जब जर्मनी और इटली जैसे बड़े यूरोपीय देशों ने अभी तक फलस्तीन को मान्यता नहीं दी है। यह स्थिति इस ओर संकेत करती है कि यूरोप के भीतर एक 'फॉल्ट लाइन' यानी विभाजन की रेखा और गहरी हो रही है।
क्या है जर्मनी का तर्क?
फलस्तीन को मान्यता देना केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह एक राजनीतिक संदेश भी है। यूरोप के कई देश यह जताना चाहते हैं कि वो इजरायल और फलस्तीन के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवाद में न्यायपूर्ण समाधान के पक्षधर हैं। वो दो राष्ट्र सिद्धांत (Two State Solution) को ही शांति का एकमात्र रास्ता मानते हैं। लेकिन, जर्मनी और इटली का मत अलग है। जर्मनी का तर्क है कि फलस्तीन को इस समय मान्यता देना शांति प्रक्रिया को मदद नहीं करेगा, बल्कि इजरायल की सुरक्षा चिंताओं को और बढ़ा सकता है। वहीं, इटली भी लगभग इसी तर्क पर खड़ा है और इजरायल के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए सतर्क रुख अपनाए हुए है।
यूरोप की आंतरिक राजनीति और दबाव
वैसे देखा जाए तो यूरोप के अंदर फलस्तीन को लेकर 2 तरह की राजनीति चल रही है। एक है समर्थन वाला धड़ा जिसमें आयरलैंड, स्पेन, नॉर्वे, स्लोवेनिया जैसे देश शामिल हैं, जो मानते हैं कि फलस्तीन की मान्यता देने से दबे-कुचले पक्ष को न्याय मिलेगा और यह शांति वार्ता पर दबाव बनाएगा। दूसरा है विरोध या तटस्थ धड़ा जिसमें जर्मनी और इटली हैं जो इजरायल के सुरक्षा तर्क को प्राथमिकता देते हैं और अमेरिकी नीति के साथ तालमेल बनाए रखते हैं।
यूरोप अभी भी पूरी तरह से एकजुट नहीं?
फलस्तीन को मान्यता देने या ना देने का निर्णय केवल पश्चिम एशिया का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह यूरोप की एकता और उसकी कूटनीतिक दिशा का भी आईना है। जर्मनी और इटली का कदम यह दिखाता है कि यूरोप अभी भी पूरी तरह से एकजुट नहीं है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि फलस्तीन मुद्दे ने यूरोप की फॉल्ट लाइन को सतह पर ला दिया है। गौर करने वाली बात यह भी है कि यूरोपीय संघ (EU) खुद को हमेशा "मानवाधिकार और लोकतंत्र" का सबसे बड़ा पैरोकार बताता है, लेकिन फलस्तीन के मुद्दे पर उसकी एकता टूटती हुई दिखाई दे रही है।
क्या यूरोप में नई ‘फॉल्ट लाइन’ बन रही है?
फलस्तीन को लेकर असहमति यूरोप की गहरी होती दरार को उजागर करती है। इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि पश्चिमी यूरोप के कुछ देश अधिक उदार रुख अपनाते हैं जबकि मध्य और पूर्वी यूरोप के देश अपेक्षाकृत अमेरिका-समर्थक और इजरायल-समर्थक होते हैं। कुछ देश फलस्तीन को मान्यता देकर मानवाधिकारों की रक्षा की छवि बनाना चाहते हैं, वहीं अन्य देश सुरक्षा और भू-राजनीति को तरजीह दे रहे हैं। इतना ही नहीं यदि यही स्थिति जारी रही तो यूरोपीय संघ की विदेश नीति की "एक आवाज" कमजोर पड़ जाएगी और हर देश अपनी-अपनी राह पकड़ सकता है।
कितने देशों ने फलस्तीन को दी है मान्यता?
फलस्तीन को अब तक फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन और सऊदी अरब समेत 152 देश मान्यता दे चुके हैं। इस तरह से यूनाइटेड नेशंस के कुल सदस्यों में से करीब 78 फीसदी ने फलस्तीन को मान्यता दे दी है। भारत साल 1988 में ही फलस्तीन को मान्यता दे चुका है। जबकि इजरायल, अमेरिका, इटली, जापान और कुछ अन्य देशों ने फलस्तीन को मान्यता नहीं दी है।
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