Sunday, April 28, 2024
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Rajat Sharma's Blog: जघन्य अपराध करने वाले मुजरिमों के लिए दया याचिका का प्रावधान खत्म करना चाहिए

सात साल पहले इन अपराधियों ने जघन्य अपराध किया था और तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया के कातिलों की फांसी की सजा को कन्फर्म कर दिया था। लेकिन अब तक चारों अपराधी जेल में रोटी तोड़ रहे हैं और निर्भया की मां को 'तारीख पर तारीख' पर मिल रही है। 

Rajat Sharma Written by: Rajat Sharma @RajatSharmaLive
Published on: February 14, 2020 19:07 IST
Death row convicts who commit heinous crimes must not be allowed to file mercy petitions- India TV Hindi
Image Source : INDIA TV Death row convicts who commit heinous crimes must not be allowed to file mercy petitions

आज मैं आपके साथ निर्भया की मां आशा देवी के उस दुख को शेयर करना चाहता हूं जिसे वो पिछले सात साल से झेल रही हैं। उनकी बेटी निर्भया के साथ बस में गैंगरेप हुआ और उसे बस से बाहर फेंक दिया गया था। बाद में उसकी मौत हो गई। इस घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश फैल गया। मैं निर्भया की मां की तपस्या को लेकर अचंभित हूं जो न्याय पाने की उम्मीद में पिछले सात साल से कोर्ट की हर सुनवाई में मौजूद रहीं। 

 
सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल पहले निर्भया केस के चारों दोषियों को फांसी की सजा सुनाई थी, निचली अदालतों द्वारा दो बार डेथ वारंट पर साइन किये गए थे। इन दोषियों को फांसी देने के लिए तिहाड़ जेल में एक जल्लाद को भी लाया गया था, लेकिन अभी तक फांसी नहीं हुई। दोषियों के वकील फांसी पर रोक लगाने के लिए विभिन्न अदालतों में एक के बाद एक याचिका दाखिल कर रहे हैं और पूरा मामला न्यायिक प्रक्रियाओं के चक्रव्यूह में उलझ गया है। 
 
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने दो याचिकाओं पर सुनवाई की- पहली केंद्र सरकार की याचिका थी जिसमें चारों दोषियों को अलग-अलग फांसी देने की मांग की गई है वहीं दूसरी याचिका एक दोषी की तरफ से दाखिल की गई थी जिसमें राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज करने को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने दोषी की याचिका पर शुक्रवार तक के लिए फैसला सुरक्षित रखा है। इसी दिन निर्भया केस के दोषियों को अलग-अलग फांसी देने की केंद्र पर याचिका पर भी सुनवाई होगी।
 
सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही सभी चार दोषियों की रिव्यू और क्यूरेटिव पिटीशन्स को खारिज कर दिया है, लेकिन इस बीच, एक दोषी ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें दावा किया गया कि वह अपराध के समय नाबालिग था। कोर्ट ने इसे भी खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट को दोषियों के वकीलों को नियुक्त करने में देरी की रणनीति के बारे में पता है, लेकिन यह याचिकाओं को सुनने के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं सकता है। गुरुवार को, दिल्ली की एक सेशन कोर्ट ने टिप्पणी की "संविधान का अनुच्छेद 21 दोषी की आखिरी सांस तक जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करता है।'

निर्भया की मां ने बेहद मायूस अवाज में अदालत से कहा, 'मैं हर दिन न्याय पाने की उम्मीद के साथ यहां आती हूं लेकिन मुझे निराश होकर लौटना पड़ता है।' इस पर जज ने उनके साथ पूरी सहानुभूति जताई, लेकिन कहा कि सभी को कानून के दायरे में काम करना होगा।' जरा आप सोचिए उस मां पर क्या बीतती होगी। पहले तो उसकी बेटी के साथ गैंगरेप कर उसकी नृशंस हत्या की गई, दुख की उस घड़ी में पूरा देश उसके साथ था और उसके बाद न्याय पाने के लिए एक लंबी यात्रा की शुरुआत हुई। सुनवाई की हर तारीख पर वह औरत न्याय की उम्मीद में कोर्ट जाती रही। सात साल से ज्यादा बीत चुके हैं।  दोषियों को फांसी की सजा का ऐलान होने के बाद भी आखिरी न्याय की उम्मीद में निर्भया की मां के कोर्ट जाने का सिलसिला जारी है।
 
मैं तो सिर्फ ये पूछना चाहता हूं कि उसका कसूर क्या है ? क्या उसका कसूर ये है कि वो अपनी बेटी के हत्यारों को मिली फांसी की सजा को इंप्लीमेंट कराना चाहती हैं? क्या उसका कसूर ये है कि पूरे देश की जनता की भावनाएं उसके साथ हैं? क्या उसका कसूर ये है कि राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और सभी निचली अदालतों ने दोषियों पर दया दिखाने से इनकार कर दिया?
 
दरअसल यह कसूर हमारे ज्यूडिशियल सिस्टम का है। जरा सोचिए सात साल पहले इन अपराधियों ने जघन्य अपराध किया था और तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया के कातिलों की फांसी की सजा को कन्फर्म कर दिया था। इन दोषियों की दया याचिका भी खारिज हुई। लेकिन अब तक चारों अपराधी जेल में रोटी तोड़ रहे हैं और निर्भया की मां को 'तारीख पर तारीख' पर मिल रही है। 
 
जरा सोचिए उस मां पर क्या बीतती होगी जब वो कोर्ट से नई तारीख लेकर निकलती है और उसकी बेटी के कातिलों के वकील गर्व से कहते हैं कि फांसी 'अनंत काल' के लिए टल गई है। निर्भया की मां आशा देवी गुरुवार को एक बार फिर अदालत के बाहर रो पड़ीं और देश ज्यूडिशियल सिस्टम की कमियों को चुपचाप देखता रहा।
 
दोषियों के वकील इतने चालाक होते हैं कि वे समय हासिल करने के लिए एक साथ याचिका दायर नहीं करते हैं। वे अलग-अलग अदालतों में याचिका दायर करते हैं - कभी पटियाला हाऊस कोर्ट, कभी दिल्ली हाईकोर्ट और कभी सुप्रीम कोर्ट में, जिससे फांसी में देरी हो और वे इस समय का फायदा उठा सकें। इसका सबसे ज्यादा असर निर्भया की मां की आंखों में नजर आता है। वे आंखों में आंसू लेकर कोर्ट से बाहर निकलती हैं। 
 
दोषियों के वकील अदालत में तर्क देते हैं कि जब इतने सारे मौत की सजा के मामले लंबित हैं तो सरकार इन दोषियों को फांसी देने की जल्दी में क्यों है। दोषियों के एक वकील ए.पी. सिंह ने यहां तक कहा कि जस्टिस हरीड इज जस्टिस बरीड (जल्दबाजी में किया गया न्याय, न्याय को दफन करना है)। मैं उन्हें यह कहना चाहता हूं कि वे यह भूल जाते हैं कि 'जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड' (न्याय में देरी भी अन्याय है)।
 
न्यापालिका को अब इस मामले में और देरी नहीं करनी चाहिए। उन लोगों के लिए जो मौत की सजा के दोषियों को उनकी आखिरी सांस तक सुनने की मांग करते हैं, उन्हें मैं कहना चाहता हूं कि उस वक्त जीने का हक कहां था जब ये अपराधी दरिंदगी कर रहे थे... जब वे किसी की जान के साथ खेल रहे थे? क्या निर्भया को जीने का हक नहीं था? कानूनी अधिकारों का मतलब कानून की आंख में धूल झोंकना कतई नहीं है।
 
मैं जितनी बार निर्भया की मां को रोते हुए कोर्ट से निकलते देखता हूं तो दुख होता है। दुख होता है जब रोते-रोते आशा देवी कहती है कि 'आखिर हमें न्याय कब मिलेगा?' निर्भया कांड के बाद सरकार ने कानून में बदलाव किया था लेकिन अब समय आ गया है कि जघन्य अपराधों में मौत की सजा वाले कैदियों के लिए दया याचिका का हक खत्म कर देना चाहिए। जब तक ये नहीं होगा...तब तक बेटियों को इंसाफ के लिए इसी तरह भटकना पड़ेगा। (रजत शर्मा)

देखें, 'आज की बात' रजत शर्मा के साथ, 13 फरवरी 2020 का पूरा एपिसोड

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