नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 में एक बड़ी कानूनी खामी को दूर करते हुए उपभोक्ताओं को बड़ी राहत दी है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि Consumer Forum अपने सभी आदेशों को लागू कर सकते हैं, न कि केवल अंतरिम आदेशों को। जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस राजेश बिंदल की बेंच ने फैसला सुनाया कि 2002 के संशोधन में ड्राफ्ट की खामियों के चलते Consumer Forum द्वारा पारिस अंतरिम आदेशों को लागू करने में एक अंतर पैदा हो गया था। लेकिन अब कानूनी व्याख्या के सिद्धांतों को उपयोग करते हुए शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया है कि 15 मार्च, 2003 और 20 जुलाई., 2020 के बीच पारित सभी आदेश एक सिविल कोर्ट की डिक्री की तरह ही लागू किए जा सकेंगे।
उपभोक्ताओं को सार्थक न्याय से वंचित किया गया-SC
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने स्पष्ट किया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (सीपीए) में 2002 के संशोधन ने "प्रत्येक आदेश" शब्दों को "अंतरिम आदेश" से बदलकर Consumer Forum की शक्तियों को गलत तरीके से सीमित कर दिया। इससे Consumer Forum के लिए अपने अंतिम निर्णयों को लागू करना असंभव हो गया। शुक्रवार को अदालत ने कहा कि इस खामी ने उपभोक्ताओं को सार्थक न्याय से वंचित कर दिया था। अदालत ने निर्देश दिया कि 1986 के अधिनियम की धारा 25 को "किसी भी आदेश" के प्रवर्तन की अनुमति देने के रूप में पढ़ा जाना चाहिए, जिससे कानून की मूल स्थिति बहाल हो सके।
महसूस होना चाहिए कागजों पर नहीं, वास्तव में न्याय मिला-SC
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, "उपभोक्ताओं को यह महसूस होना चाहिए कि उन्हें केवल कागजों पर नहीं, बल्कि वास्तव में न्याय मिला है।" उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि Consumer Forum के आदेशों को सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत दीवानी अदालतों के आदेशों की तरह लागू किया जाना चाहिए।
क्या था मामला?
यह मामला पुणे स्थित पाम ग्रोव्स कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट खरीदारों से जुड़े एक लंबे समय से चल रहे विवाद का है। जिला उपभोक्ता फोरम ने 2007 में बिल्डर को सोसाइटी के पक्ष में एक कन्वेयन्स डीड ( हस्तांतरण विलेख) निष्पादित करने का निर्देश दिया था, लेकिन 2002 के संशोधन का हवाला देते हुए हाईकोर्ट ने इस आदेश को रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अब उन फैसलों को खारिज कर दिया है और कहा है कि ऐसी निष्पादन याचिकाएं वास्तव में विचारणीय थीं।
2002 के संशोधन का असर
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने 2002 के संशोधन से उपभोक्ताओं पर पड़ने वाले विनाशकारी प्रभाव को रेखांकित किया। आंकड़ों से पता चला है कि जिला मंचों में निष्पादन याचिकाओं की लंबित संख्या 1992-2002 के 1,470 मामलों से बढ़कर 2003 और 2019 के बीच 42,118 हो गई, और 2019 के सुधार के बाद भी, 2020 और 2024 के बीच बढ़कर 56,578 हो गई। राज्य मंचों में लंबित मामलों की संख्या 6,104 (2004-2024) और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) में लंबित मामलों की संख्या 1,945 (2011-2024) रही।